अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
क्रो॒ड आ॑सीज्जामिशं॒सस्य॒ सोम॑स्य॒ क॒लशो॑ धृ॒तः। दे॒वाः सं॒गत्य॒ यत्सर्व॑ ऋष॒भं व्यक॑ल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठक्रो॒ड: । आ॒सी॒त् । जा॒मि॒ऽशं॒सस्य॑ । सोम॑स्य । क॒लश॑: । धृ॒त: । दे॒वा: । स॒म्ऽगत्य॑ । यत् । सर्वे॑ । ऋ॒ष॒भम् । वि॒ऽअक॑ल्पयन् ॥४.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रोड आसीज्जामिशंसस्य सोमस्य कलशो धृतः। देवाः संगत्य यत्सर्व ऋषभं व्यकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठक्रोड: । आसीत् । जामिऽशंसस्य । सोमस्य । कलश: । धृत: । देवा: । सम्ऽगत्य । यत् । सर्वे । ऋषभम् । विऽअकल्पयन् ॥४.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[परमेश्वर की] (क्रोडः) गोद (जामिशंसस्य) ज्ञानियों में प्रशंसावाले पुरुष की (आसीत्) थी, [उसका] (कलशः) कलस [जलपात्र] (सोमस्य) अमृत का (धृतः) धरा हुआ [था]। (यत्) जब (सर्वे) सब (देवाः) विद्वानों ने (संगत्य) मिलकर (ऋषभम्) सर्वदर्शक परमेश्वर को (व्यकल्पयन्) विविध प्रकार कल्पना से माना ॥१५॥
भावार्थ
विद्वान् लोग निश्चय करके मानते हैं कि परमेश्वर विद्वानों का आश्रय और अमृतस्वरूप है ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(क्रोडः) क्रुड बाल्ये-घञ्। अङ्कः। वक्षः (आसीत्) (जामिशंसस्य) नियो मिः। उ० ४।४३। या गतौ यद्वा ज्ञा ज्ञाने−मि, आदेर्जत्वम्। शंसु हिंसागत्योः-अ प्रत्ययः, टाप्। ज्ञातृषु विद्वत्सु शंसा प्रशंसा यस्य तस्य (सोमस्य) अमृतस्य (कलशः) जलपात्रम् (धृतः) स्थापितः (देवाः) विद्वांसः (संगत्य) मिलित्वा (यत्) यदा (सर्वे) (ऋषभम्) (व्यकल्पयन्) विविधं कल्पितवन्तः ॥
विषय
विराट् प्रभु का दर्शन
पदार्थ
१. ब्रह्मा प्रभु के विराट् शरीर की कल्पना इसप्रकार करता है कि उस विराद पुरुष के (पार्श्वे) = दोनों पार्श्व (अनुमत्याः आस्ताम्) = अनुमति के हैं-एक कला से हीन पूर्णिमा के चाँद के हैं [कलाहीने सानुमतिः] (अनूवृजौ) = पसलियों के दोनों भाग (भगस्य आस्ताम्) = सूर्य के हैं। (मित्रः इति अब्रवीत) = प्राणवायु ने यह कहा है कि उस विराट् के (एतौ अष्ठीवन्तौ) = ये घुटने तो (केवलौ मम) = केवल मेरे ही हैं। २. (भसत्) = प्रजनन भाग (आदित्यानाम् आसीत्) = आदित्यों का है, (श्रोणी) = कटि के दोनों भाग (बृहस्पते: आस्ताम्) = बृहस्पति के हैं, (पुच्छम्) = पुच्छ भाग (देवस्य वातस्य) = दिव्य गुणयुक्त वायु का है। (तेन) = वायुनिर्मित पुच्छ से वह (ओषधी: धूनोति) = सब ओषधियों को कम्पित करता है। ३. (गुदा:) = गुदा की नाड़ियाँ (सिनीवाल्याः आसन्) = सिनीवाली [सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली] जिसमें चन्द्रमा की एक कला प्रादुर्भूत हो रही है, उस अमावस की हैं, (त्वचम्) = त्वचा को (सूर्यायाः अब्रुवन्) = सूर्या का [सूर्या-The daughter of the sun-उषा] उषा का कहते हैं। (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को (यत् अकल्पयन्) = जब विराट् पुरुष के रूप में कल्पित किया-सोचा गया तो (पदः) = उसके पाँवों को (उत्थातुः अब्रुवन्) = उत्थाता [प्राण का] कहा गया। ४. (जामिशंसस्य) = सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले, मातृरूप प्रभु का शंसन करनेवाले की वे (क्रोडः आसीत्) = गोद है। यह भक्त सदा मातृरूप प्रभु की गोद में आनन्दित होता है। यह प्रभु तो (सोमस्य कलश:) = सोम का-आनन्दरस का कलश ही (धृत:) = धारण किया गया है। (यत्) = जब (सर्वे देवा:) = सब देव (संगत्य) = मिलकर (ऋषभम्) = उस सर्वव्यापक प्रभु को (व्यकल्पयन्) = एक विराट् पुरुष के रूप में कल्पित करते हैं, तब उपर्युक्त प्रकार से ब्रह्मा द्वारा उस प्रभु के अङ्गों का प्रतिपादन होता है।
भावार्थ
ब्रह्माण्ड के सब पिण्ड उस विराट् पुरुष के विविध अङ्गों के रूप में है।
भाषार्थ
(क्रोडः) छाती (आसीत्) थी (जाभिशंसस्य) जामिशंस की, (कलशः) दुग्धाशय (सोमस्य) सोम के लिये (धृतः) निर्धारित किया। (सर्वे देव) सब देवों ने (संगत्य) मिलकर (यत्) जब (ऋषभम्) बलीवर्द की (व्यकल्पयन्) विविध प्रकार की कल्पना की।
टिप्पणी
['जामिशंस" का अर्थ है "बहिन की प्रशंसा करने वाला। जामि अर्थात् सहजात भगिनी, शंस= शंसु स्तुतौ, स्तुति करने वाला, प्रशंसा करने वाला भाई। जो भाई निज बहिन की सदा प्रशंसा करता और उस की रक्षा करता है उसके लिये क्रोड़ है, छाती है, वह छाती में लगाकर स्नेह करने के योग्य है। "स्वसुर्जारः" (ऋ० ६।५५।५) में “जार" का अर्थ "प्रशंसक" भी सम्भव है। यथा “जरिता स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)। "सोमस्य कलशः" में सोम का अर्थ है दुग्ध (ऋ० ९।१०७।९) में सोम का अर्थ दुग्ध है। (निरुक्त ५।१।३)। "कलश" का अर्थ है गौ का दुग्धाशय जिसमें दुग्ध का आवास होता है। निरुक्त में जामिशंस का वर्णन नहीं हैं।
विषय
ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
वह परमात्मा (जामिशंसस्य) सब जगत् को उत्पन्न करने वाली माता कहने वाले भक्त के लिये, (क्रोडः आसीत्) माता की गोद ही है। और मानो वह स्वयं (सोमस्य) सोम, आनन्द रस का (कलशः) पूर्ण कलश (धृतः) माना गया हैं। (देवाः) विद्वान् लोग (यत्) भी (सर्वे) सब (संगत्य) नाना प्रकार से संगति लगाकर (ऋषभं) उस महान् परमेश्वर को (वि अकल्पयन्) विविध प्रकार से कल्पना कर लेते हैं। अथवा (सर्वे देवाः) समस्त दिव्य पदार्थ ही (संगत्य) विविध परस्पर मिलकर स्वयं (ऋषभम्) उस महान् पुरुष को (वि अकल्पयन्) विविध रूपों से कल्पित कर रहे हैं अर्थात् वे ही उसके अंग प्रत्यंग बना रहे हैं।
टिप्पणी
‘जामिशंस’—जाम् अपत्यं जायते अस्याम् इति जामिर्माता। जामि इति शंसति स ‘जामिशंसः’, मातृपदेन भाषमाणो जनः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
The bosom is of the one that loves and appreciates his people. The treasure-hold of life’s pleasure reserved and preserved is of Soma, peace and joy. Thus proclaimed the divine sages come together who meditated on the Rshabha in fullness, though part by part. (Refer also to Shvetashvatara Upanishad, 1, 3).
Translation
The breast is assigned to Jamisansa, and the vessel was held as of the blissful Lord (Soma), so all the bounties of Nature assemble and divide the bull.
Translation
The learned men when they aspire in their imagination calculating all to its nearest resemblance assign his lap to the man of praiseworthy knowledge which is a jar full of Soma, the juice of herbs and plants.
Translation
God is like the lap of a mother, for the devotee who consider Him as a Mother, Who creates the universe. God is known as the store-house of joy. All the learned persons do think of God in various aspects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(क्रोडः) क्रुड बाल्ये-घञ्। अङ्कः। वक्षः (आसीत्) (जामिशंसस्य) नियो मिः। उ० ४।४३। या गतौ यद्वा ज्ञा ज्ञाने−मि, आदेर्जत्वम्। शंसु हिंसागत्योः-अ प्रत्ययः, टाप्। ज्ञातृषु विद्वत्सु शंसा प्रशंसा यस्य तस्य (सोमस्य) अमृतस्य (कलशः) जलपात्रम् (धृतः) स्थापितः (देवाः) विद्वांसः (संगत्य) मिलित्वा (यत्) यदा (सर्वे) (ऋषभम्) (व्यकल्पयन्) विविधं कल्पितवन्तः ॥
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