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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    79

    पुमा॑न॒न्तर्वा॒न्त्स्थवि॑रः॒ पय॑स्वा॒न्वसोः॒ कब॑न्धमृष॒भो बि॑भर्ति। तमिन्द्रा॑य प॒थिभि॑र्देव॒यानै॑र्हु॒तम॒ग्निर्व॑हतु जा॒तवे॑दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुमा॑न् । अ॒न्त:ऽवा॑न् । स्थवि॑र: । पय॑स्वान् । वसो॑: । कब॑न्धम् । ऋ॒ष॒भ: । बि॒भ॒र्ति॒ । तम् । इन्द्रा॑य । प॒थिऽभि॑: । दे॒व॒ऽयानै॑: । हु॒तम् । अ॒ग्नि: । व॒ह॒तु॒ । जा॒तऽवे॑दा: ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुमानन्तर्वान्त्स्थविरः पयस्वान्वसोः कबन्धमृषभो बिभर्ति। तमिन्द्राय पथिभिर्देवयानैर्हुतमग्निर्वहतु जातवेदाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुमान् । अन्त:ऽवान् । स्थविर: । पयस्वान् । वसो: । कबन्धम् । ऋषभ: । बिभर्ति । तम् । इन्द्राय । पथिऽभि: । देवऽयानै: । हुतम् । अग्नि: । वहतु । जातऽवेदा: ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुमान्) रक्षा करनेवाला, (अन्तर्वान्) [सबको अपने] भीतर रखनेवाला, (स्थविरः) स्थिरस्वभाव [ब्रह्मा] (पयस्वान्) अन्नवान् (ऋषभः) सर्वव्यापक परमेश्वर (वसोः) निवास करनेवाले [संसार] के (कबन्धम्) उदर को (बिभर्त्ति) भरता है। (तम् हुतम्) उस दाता को (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये (देवयानैः) विद्वानों के जाने योग्य (पथिभिः) मार्गों से (जातवेदाः) बड़े ज्ञानवाला (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी पुरुष] (वहतु) प्राप्त करे ॥३॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सब संसार में भीतर और बाहिर व्यापक होकर सबका पालन करता है, ज्ञानी पुरुष उसी की उपासना से ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(पुमान्) अ० १।८।१। पा रक्षणे−डुमसुन्। रक्षकः (अन्तर्वान्) अन्तर्-मतुप्। अन्तर्मध्ये सर्वं विद्यतेऽस्य सः (स्थविरः) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-किरच्, धातोर्वुक्, ह्रस्वत्वं च। स्थिरः (पयस्वान्) अन्नवान् (वसोः) निवासशीलस्य संसारस्य (कबन्धम्) केन वायुना दध्यते, क+बन्ध बन्धने-घञ्। उदरम् (ऋषभः) म० १। सर्वव्यापकः (बिभर्ति) भरति (तम्) ऋषभम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्राप्तये (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गमनीयैः (हुतम्) हु दानादानादनेषु-क्विप्, तुक् च। दातारम् (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी पुरुषः (वहतु) प्राप्नोतु (जातवेदाः) जातानि विद्यमानानि वेदांसि ज्ञानानि यस्य सः ॥

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    विषय

    'पुमान् पयस्वान्' प्रभु

    पदार्थ

    १. (पुमान्) = [पू] सबको पवित्र करनेवाले, (अन्तर्वान्) = सारे ब्रह्माण्ड को अपने में धारण किये हुए (स्थविर:) = स्थिर-कूटस्थ, (पयस्वान्) = आनन्दरसवाले, (ऋषभ:) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु (वसोः) = सबको बसानेवाले संसार के (क-बन्धम्) = सुखमय बन्धन को (बिभर्ति) = धारण करते हैं। प्रभु ने संसार को सुखमय बनाया है। इसमें आसक्ति, अतियोग व व्यवहार का दोष दु:खों को पैदा करता है। २. (तं हुतम्) = उस सर्वप्रद प्रभु को [हु दाने] (इन्द्राय) = परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए (जातवेदा:) = उत्पन्न ज्ञानवाला (अग्नि:) = प्रगतिशील जीव (देवयान: पथिभिः) = देवयान मार्गों से (वहतु) = धारण करे। यदि हम ज्ञानी व प्रगतिशील बनकर देवयान मार्ग से चलेंगे तो क्यों न उस प्रभु को प्राप्त करेंगे?

    भावार्थ

    प्रभु ने संसार को सुखमय बनाया है। अयोग व व्यवहार-दोष से हम इसे दु:खमय बना लेते हैं। ज्ञानी व प्रगतिशील बनकर हम देवयान मार्गों से चलें तो प्रभु को प्राप्त करेंगे और परमैश्वर्य के भागी होंगे।

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    भाषार्थ

    (पुमान्) शक्ति में बढ़ा हुआ, (अन्तर्वान्) सबके भीतर व्याप्त, (स्थविरः) कालवृद्ध, (पयस्वान्) दुग्धादि पदार्थों का स्वामी, (ऋषभः) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, (वसोः) वास सम्बन्धी (कबन्धम्) मेघ का (विभर्ति) भरण-पोषण करता है। (देवयानैः पथिभिः) देवयान मार्गों द्वारा (इन्द्राय) इन्द्रियों के स्वामी जीवात्मा के लिये (हुतम्) समर्पित हुए। (तम्) उस परमेश्वर को, (जातवेदाः अग्निः) वेदानुसार उत्पन्न ज्ञानाग्नि (वहतु) प्राप्त करती हैं। अथवा प्रज्ञानरूपी ज्ञानाग्निः उसे प्राप्त करती है। वह प्रापणे

    टिप्पणी

    [पुमान्= पुंस अभिवर्द्धने (चुरादिः)। कबन्धम्= "मेघम्, कबनमुदकं भवति, तदस्मिन् धीयते" (निरु० १०।१।४)। हुतम्= परमेश्वर जीवात्मा की उन्नति के लिये, उसके प्रति अपने-आप को समर्पित किए हुए है। (देव यानैः पथिभिः) देवजन जिन मार्गों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं, उन मार्गों में चलाने वाले जीवात्मा के लिये परमेश्वर अपने-आप को समर्पित कर देता है]

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    विषय

    ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (ऋषभः) वह सब संसार को चलाने वाला, सर्वश्रेष्ठ (पुमान्) पुमान् पुरुष, पूर्ण ज्ञानी अथवा समस्त पदार्थों में व्यापक या सब को बढ़ाने वाला या स्वयं सब से महान् (अन्तर्वान्) अतएव समस्त विश्वों को अपने भीतर धारण करने वाला, (स्थविरः) नित्य कूटस्थ, सदा स्थिर, अविनाशी होकर (वसोः) वसु, बसने वाले इस अखिल जगत के (कबन्धम्) शरीर भाग को अथवा ज्ञानमय, सुखमय, शक्तिमय बन्धन सामर्थ्य को (बिभर्ति) स्वयं धारण करता है, (तम्) उन (हुतम्) व्यापक परमात्मा को (जातवेदाः) प्रज्ञावान् (अग्निः) अग्रणी, योगी, ज्ञानी, विद्वान् (देवयानैः) विद्वानों से जाने योग्य (पथिभिः) मोक्ष-मार्गों से (इन्द्राय) अपने ऐश्वर्य के निमित्त (वहतु) प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    Rshabha, cosmic Purusha, all pervasive womb of existence, eternal constant, treasure-hold of the milk of life, bears nourishment for sustenance of the world just as he fills up the cloud with vapour. May Jataveda Agni, light of knowledge, gift of omniscience, bear and bring the vision of that divine presence by divine paths of meditative realisation for the human soul.

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    Translation

    The bull male, impregnator, huge and rich in semen, wears the form of riches and wealth. May the adorable Lord, cognizant of all, lead him, dedicated to the resplendent Lord, along the paths frequented by the enlightened ones.

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    Translation

    God who protects all, who takes every item of the world within His who survives ail eternities and who possesses all the powers of creation and destruction sustains the structure of the universe. Let the yajnas the ascetic well-versed in the vedic speech attain that worshipable God for his soul’s benefit through the pathways paved by the learned persons.

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    Translation

    God, the Motivator of the world. Foremost of all, the Engulfer of all planets, steadfast, full of vigor, sustain the entire structure of the universe, fit to live in. May a learned Yogi, attain to that All-pervading God, for supremacy through pathways traversed by the sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(पुमान्) अ० १।८।१। पा रक्षणे−डुमसुन्। रक्षकः (अन्तर्वान्) अन्तर्-मतुप्। अन्तर्मध्ये सर्वं विद्यतेऽस्य सः (स्थविरः) अजिरशिशिरशिथिल०। उ० १।५३। ष्ठा गतिनिवृत्तौ-किरच्, धातोर्वुक्, ह्रस्वत्वं च। स्थिरः (पयस्वान्) अन्नवान् (वसोः) निवासशीलस्य संसारस्य (कबन्धम्) केन वायुना दध्यते, क+बन्ध बन्धने-घञ्। उदरम् (ऋषभः) म० १। सर्वव्यापकः (बिभर्ति) भरति (तम्) ऋषभम् (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्राप्तये (पथिभिः) मार्गैः (देवयानैः) विद्वद्भिर्गमनीयैः (हुतम्) हु दानादानादनेषु-क्विप्, तुक् च। दातारम् (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी पुरुषः (वहतु) प्राप्नोतु (जातवेदाः) जातानि विद्यमानानि वेदांसि ज्ञानानि यस्य सः ॥

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