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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    89

    श॑त॒याजं॒ स य॑जते॒ नैनं॑ दुन्वन्त्य॒ग्नयः॑। जिन्व॑न्ति॒ विश्वे॒ तं दे॒वा यो ब्रा॑ह्म॒ण ऋ॑ष॒भमा॑जु॒होति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒त॒ऽयाज॑म् । स: । य॒ज॒ते॒ । न । ए॒न॒म् । दु॒न्व॒न्ति॒ । अ॒ग्नय॑: । जिन्व॑न्ति । विश्वे॑ । तम् । दे॒वा: । य: । ब्रा॒ह्म॒णे । ऋ॒ष॒भम् । आ॒ऽजु॒होति॑ ॥४.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतयाजं स यजते नैनं दुन्वन्त्यग्नयः। जिन्वन्ति विश्वे तं देवा यो ब्राह्मण ऋषभमाजुहोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतऽयाजम् । स: । यजते । न । एनम् । दुन्वन्ति । अग्नय: । जिन्वन्ति । विश्वे । तम् । देवा: । य: । ब्राह्मणे । ऋषभम् । आऽजुहोति ॥४.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (ब्राह्मणः) ब्राह्मण [परमेश्वर और वेद जाननेवाला] (ऋषभम्) श्रेष्ठ परमात्मा को (आजुहोति) अच्छे प्रकार प्रसन्न करता है, (सः) वह (शतयाजम्) शीघ्र सैकड़ों प्रकार से यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] करके (यजते) मिलता है, (एनम्) उसको (अग्नयः) तापें [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] (न) नहीं (दुन्वन्ति) तपाते हैं, (तम्) उसको (विश्वे) सब (देवाः) दिव्यगुण (जिन्वन्ति) तृप्त करते हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का भक्त विद्वान् पुरुष संसार की भलाई में तत्पर होकर तीनों तापों से छूटकर आनन्द भोगता है ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(शतयाजम्) द्वितीयायां च। पा० ३।४।५३। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-परीप्सायां णमुल्। तुरया शतानि इष्ट्वा श्रेष्ठव्यवहारान् कृत्वा (सः) ब्राह्मणः (यजते) सङ्गच्छते (न) निषेधे (एनम्) ब्राह्मणम् (दुन्वन्ति) उपतापयन्ति (अग्नयः) त्रितापाः (जिन्वन्ति) जिन्वतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। प्रीतिकर्मा-निरु० ६।२२। तर्पयन्ति (विश्वे) सर्वे (तम्) (देवाः) दिव्या गुणाः (यः) (ब्राह्मणः) अ० २।६।३। ब्रह्मज्ञः (ऋषभम्) श्रेष्ठं परमात्मानम् (आजुहोति) हु प्रीणने। समन्तात् प्रीणाति ॥

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    विषय

    'प्रभुस्मरण' व 'स्वस्थ, पवित्र जीवन'

    पदार्थ

    १. (यः ब्राह्मणे) = जो ब्रह्मज्ञान के निमित्त (ऋषभम् आजुहोति) = उस सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा प्रभु को अपने में अर्पित करता है, अर्थात् प्रभु को अपने हृदय में स्थापित करने के लिए यत्नशील होता है, (स:) = वह (शतयाजं यजते) = शतवर्षपर्यन्त यज्ञों को करनेवाला होता है। (एनम्) = इस प्रभु स्मरणपूर्वक यज्ञ करनेवाले व्यक्ति को (अग्नयः) = अग्नियाँ न (दुवन्ति) = सन्तप्त नहीं करती, अर्थात् यह आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तापों से पीड़ित नहीं होता। २. (तम्) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले को (विश्वेदेवा:) = सूर्य-चन्द्रमा आदि सब देव (जिन्वन्ति) = प्रीणित करनेवाले होते हैं। सूर्य-चन्द्रमा आदि सब देवों की अनुकूलता से यह यज्ञशील उपासक पूर्ण स्वस्थ बनता है|

    भावार्थ

    हम ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए हदय में प्रभु का ध्यान करें। ऐसा करने पर हमारा जीवन यज्ञमय होगा। हम कष्टानियों से पीड़ित नहीं होंगे और सूर्यादि सब देवों की अनुकूलता से हमें पूर्ण स्वास्थ्य प्रास होगा।

     

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    भाषार्थ

    (सः) वह [परमयोगी] मानो (शतयाजम्) सैंकड़ों यज्ञ (यजते) करता है, (एनम्) इसे (अग्नयः) कामादि अग्नियां (न दुन्वन्ति) उत्तप्त नहीं करती, और (विश्वे देवाः) सब प्रकार के दिव्य विचार तथा दिव्य कर्म (जिन्वन्ति) उसे नई प्रेरणाएं देते हैं, (यः) जो कि (ब्राह्मणे) ब्रह्मोपासक में (ऋषभम्) श्रेष्ठ परमेश्वर की (आजुहोति) आहुति देता है।

    टिप्पणी

    [उपासक है तो ब्रह्मोपासक, परन्तु इसे ब्रह्म के दर्शन नहीं हुए। परमयोगी इस की "उपासनारूपी-अग्नि" में परमेश्वर की आहुति देकर इसे ब्रह्म का साक्षात् करा देता है। यह आहुति देता है, परमयोगी। मानो इस आहुति द्वारा उसने महायज्ञ किया है। इसलिये वह मानो सैकड़ों यज्ञों के फलों का अधिकारी बन जाता है। अग्नयः— देखो (अथर्व० १६।१।१- १३)। दुन्वन्ति= टुदु उपतापे (स्वादिः)। जिन्वन्ति=जिवि प्रीणनार्थः (भ्वादिः)]

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    विषय

    ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो पुरुष (ब्राह्मणे) ब्रह्म के जानने वाले विद्वान् को साक्षी रख कर (ऋषभम्) महान् परमेश्वर का (आजुहोति) यज्ञ पूजा करता है (सः) वह मानो (शतयाजम् यजते) सैकड़ों यज्ञ करता है। (एनम्) इसको (अग्नयः) अग्नियें संतापकारी पदार्थ (न दुन्वन्ति) दुःख नहीं देते। (तम्) उसको (विश्वे देवाः) समस्त देवगण, विद्वान् और दिव्य पदार्थ अग्नि, जल आदि (जिन्वन्ति) तृप्त या प्रसन्न करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    A hundred yajnas does he perform, no fires of the world ever afflict him, all divinities of the world inspire and bless him and bless that sage who invokes and worships Rshabha in words of the Veda and realises the Divine in the world of his creation.

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    Translation

    Whoever gives a bull to an intellectual person, he as if, performs a sacrifice, worth a hundred sacrifices; the fires do not afflict him; and all the bounties of Nature favour him.

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    Translation

    He who grasps the almighty God in the grand panorama of the universe, performs the hundreds of the yajna, the heat of three kinds of pains does not burn him and all the learned persons promote him.

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    Translation

    The Brahmana who propitiates God, performs an act of hundred sacrifices (Yajnas) spiritual, elemental, physical privations torment him not. All the learned persons and the forces of nature satisfy him.

    Footnote

    Brahmana: He knows God and the Vedas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(शतयाजम्) द्वितीयायां च। पा० ३।४।५३। यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-परीप्सायां णमुल्। तुरया शतानि इष्ट्वा श्रेष्ठव्यवहारान् कृत्वा (सः) ब्राह्मणः (यजते) सङ्गच्छते (न) निषेधे (एनम्) ब्राह्मणम् (दुन्वन्ति) उपतापयन्ति (अग्नयः) त्रितापाः (जिन्वन्ति) जिन्वतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। प्रीतिकर्मा-निरु० ६।२२। तर्पयन्ति (विश्वे) सर्वे (तम्) (देवाः) दिव्या गुणाः (यः) (ब्राह्मणः) अ० २।६।३। ब्रह्मज्ञः (ऋषभम्) श्रेष्ठं परमात्मानम् (आजुहोति) हु प्रीणने। समन्तात् प्रीणाति ॥

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