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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - जगती सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    70

    ए॒तं वो॒ युवा॑नं॒ प्रति॑ दध्मो॒ अत्र॒ तेन॒ क्रीड॑न्तीश्चरत॒ वशाँ॒ अनु॑। मा नो॑ हासिष्ट ज॒नुषा॑ सुभागा रा॒यश्च॒ पोषै॑र॒भि नः॑ सचध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम् । व॒: । युवा॑नम् । प्रति॑ । द॒ध्म॒: । अत्र॑ । तेन॑ । क्रीड॑न्ती: । च॒र॒त॒ । वशा॑न् । अनु॑ । मा । न॒: । हा॒सि॒ष्ट॒ । ज॒नुषा॑ । सु॒ऽभा॒गा॒: । रा॒य: । च॒ । पोषै॑: । अ॒भि । न॒: । स॒च॒ध्व॒म् ॥४.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतं वो युवानं प्रति दध्मो अत्र तेन क्रीडन्तीश्चरत वशाँ अनु। मा नो हासिष्ट जनुषा सुभागा रायश्च पोषैरभि नः सचध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतम् । व: । युवानम् । प्रति । दध्म: । अत्र । तेन । क्रीडन्ती: । चरत । वशान् । अनु । मा । न: । हासिष्ट । जनुषा । सुऽभागा: । राय: । च । पोषै: । अभि । न: । सचध्वम् ॥४.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (वः) तुमको (एतम्) इस (युवानम् प्रति) बलवान् [परमेश्वर] के प्रति (दध्मः) हम रखते हैं, (अत्र) यहाँ पर (तेन) उस [परमेश्वर] के साथ (क्रीडन्तीः) मन बहलाती हुई [तुम प्रजाओ !] (वशान् अनु) अनेक प्रभुताओं के साथ-साथ (चरत) विचरो। (सुभागाः) हे बड़े ऐश्वर्यवाले ! (नः) हमें (जनुषा) जनता [मनुष्यों] से (मा हासिष्ट) मत पृथक् करो, (च) और (रायः) धन की (पोषैः) वृद्धियों से (नः) हमें (अभि) सब ओर से (सचध्वम्) सींचो ॥२४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों के उपदेश से परमात्मा की आज्ञा में चलते हैं, वे मनुष्यों के बीच उत्तम सन्तान आदि और धन प्राप्त करके अनेक प्रकार प्रभुता करते हैं ॥२४॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    २४−(एतम्) समीपवर्तिनम् (वः) युष्मान् (युवानम्) बलिनं परमेश्वरम् (प्रति) अभिलक्ष्य (दध्मः) स्थापयामः (अत्र) (तेन) यूना परमेश्वरेण (क्रीडन्तीः) खेलनं कुर्वन्त्यः (चरत) चलत (वशान्) प्रभुत्वानि (अनु) अनुसृत्य (नः) अस्मान् (मा हासिष्ट) ओहाक् त्यागे−लुङ्। मा त्यजत (जनुषा) जनेरुसिः। उ० २।११५। जनी प्रादुर्भावे-उसि। जनतया। जनसमूहेन (सुभागाः) भग-अण्। शोभनं भगमैश्वर्यसमूहो येषां ते (सचध्वम्) सिञ्चत। वर्धयत। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    आत्मक्रीड़

    पदार्थ

    १. हे जीवो! (व:) = तुम्हें (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (एतं युवानं प्रतिदध्म:) = इस [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों से पृथक् करनेवाले तथा अच्छाइयों से मिलानेवाले प्रभु के प्रति धारण-करते हैं, अर्थात् प्रभु से तुम्हारा मेल कराते हैं। (तेन) = उस प्रभु के साथ (क्रीडन्ती:) = क्रीड़ा करते हुए तुम (वशान् अनु चरत्) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुपात में प्रभु के साथ गति करो। जितना-जितना तुम इन्द्रियों को वश में करोगे, उतना-उतना ही प्रभु के साथ विचरनेवाले बनोगे। आत्मक्रीड़ बनो, इन्द्रियों को वश में करो तथा प्रभु के साथ विचरो। २. यह आत्मवशी प्रार्थना करता है कि-हे (सुभागा:) = उत्तम ऐश्वर्यवाली वेदवाणियो! आप (नः) = हमें (जनुषा मा हासिष्ट) = जन्म से ही मत छोड़ो, अर्थात् जन्म से ही हमारा तुम्हारे साथ सम्बन्ध बना रहे (च) = तथा (रायः पोषैः) = धन के पोषणों के साथ (न:) = हमें (सचध्वम्) = समवेत करो।

    भावार्थ

    हम प्रभु के साथ मेल बनाये रक्खें, आत्मक्रीड़ बनते हुए जितेन्द्रिय बनें । जन्म से ही वेदवाणियों के साथ हमारा सम्बन्ध हो और हम धनों का पोषण प्राप्त

    विशेष

    विशेष-वैदवाणियों में अपने को परिपक्व करनेवाला यह 'भृगु' बनता है। अगले सूक्त का ऋषि यह भृगु ही है -

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    भाषार्थ

    (एतम्, युवानम्) इस युवा को, (वः प्रति) तुम्हारे प्रति (अत्र) इस गोष्ठ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं, (क्रीडन्तीः) हे प्रजाओ ! क्रीडा स्वभाव वाली होकर, (वशान् अनु) इच्छाओं के अनुसार (तेन) उस युवा के साथ (चरत) तुम विचरो। (जनुषा) नव जीवन के कारण (सुभागाः) सौभाग्य सम्पन्न हुई तुम (नः) हमारा अर्थात् हम योगियों का (हासिष्ट मा) परित्याग न करो, (च) अपितु (रायः पोषैः) अध्यात्म सम्पत्तियों की पुष्टियों से सम्पन्न हुई तुम (नः अभि सचध्वम्) हमारी ओर आकर हमारे सत्संगों को प्राप्त करती रहो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २३ के अनुसार सर्वव्यापक परमेश्वर का सामीप्य उपासक अनुभव नहीं कर रहे हैं परमयोगी उनके प्रति कहते हैं कि इस सदा युवा, अतः सदा शक्ति तथा सामर्थ्य वाले परमेश्वर को तुम्हारे गोष्ठों अर्थात् मनों या शरीरों (मन्त्र १७) में हम स्थापित करते हैं। सदा क्रीडा स्वभाव वाली होकर जब चाहो, उस युवा के साथ विचरो। परन्तु इस नए अध्यात्म जीवनों तथा अध्यात्म सम्पत्तियों को प्राप्त कर, हम गुरुओं के साथ अपना सम्बन्ध भी बनाए रखो। बलीवर्द पक्ष में युवा बैल तथा गौओं में परस्पर क्रीड़ा का वर्णन है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    O children of the earth, people of the human nation, thus do we present before you the power and presence of this divine youthful Rshabha, all abundant lord of life. Joyously play, and enjoy life in the presence of this lord to your complete self-fulfilment. And never by nature in the essence forsake us. Be happy and abundantly fortunate and prosperous, stay with us with honour and wealth, and with health and nourishment, advancing in body, mind and soul. (Also refer to Aitareya Upanishad, 1, 1-3)

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    Translation

    We set this young (bull) towards you; here playing with him, roam about as you wish. O fortunate ones (cows), may you not abandon us with progeny; may you favour us with riches and nourishments.

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    Translation

    O learned persons ! we restore you for the attainment of this ever-mature God. O people of the world ! you wander in this world rejoicing with God and having various possessions. O ye men of riches ! may we not be reft of progeny and do ye favor us growth of riches.

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    Translation

    O men we dedicate ye to this ever young, active God. In this world, controlling your organs, sporting with Him, remain in His Company. O fortunate persons, never forsake us by your nature, and approach us with riches, invigorating milk and food!

    Footnote

    We, Us: Learned persons. Sporting: Deriving joy in God’s company.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(एतम्) समीपवर्तिनम् (वः) युष्मान् (युवानम्) बलिनं परमेश्वरम् (प्रति) अभिलक्ष्य (दध्मः) स्थापयामः (अत्र) (तेन) यूना परमेश्वरेण (क्रीडन्तीः) खेलनं कुर्वन्त्यः (चरत) चलत (वशान्) प्रभुत्वानि (अनु) अनुसृत्य (नः) अस्मान् (मा हासिष्ट) ओहाक् त्यागे−लुङ्। मा त्यजत (जनुषा) जनेरुसिः। उ० २।११५। जनी प्रादुर्भावे-उसि। जनतया। जनसमूहेन (सुभागाः) भग-अण्। शोभनं भगमैश्वर्यसमूहो येषां ते (सचध्वम्) सिञ्चत। वर्धयत। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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