अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
दे॒वानां॑ भा॒ग उ॑पना॒ह ए॒षो॒पां रस॒ ओष॑धीनां घृ॒तस्य॑। सोम॑स्य भ॒क्षम॑वृणीत श॒क्रो बृ॒हन्नद्रि॑रभव॒द्यच्छरी॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । भा॒ग: । उ॒प॒ऽना॒ह: । ए॒ष: । अ॒पाम् । रस॑: । ओष॑धीनाम् । घृ॒तस्य॑ । सोम॑स्य । भ॒क्षम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । श॒क्र: । बृ॒हन् । अद्रि॑: । अ॒भ॒व॒त् । यत् । शरी॑रम् ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानां भाग उपनाह एषोपां रस ओषधीनां घृतस्य। सोमस्य भक्षमवृणीत शक्रो बृहन्नद्रिरभवद्यच्छरीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । भाग: । उपऽनाह: । एष: । अपाम् । रस: । ओषधीनाम् । घृतस्य । सोमस्य । भक्षम् । अवृणीत । शक्र: । बृहन् । अद्रि: । अभवत् । यत् । शरीरम् ॥४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(एषः) यह [परमेश्वर] (देवानाम्) दिव्य गुणों का (भागः) ऐश्वर्यवान् (उपनाहः) नित्य सम्बन्धी, और (अपाम्) जलों का (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न आदि पदार्थों] का और (घृतस्य) घृत का (रसः) रसरूप है। (शक्रः) उसी शक्तिमान् ने (सोमस्य) अमृत के (भक्षम्) भोग को [हमारे लिये] (अवृणीत) स्वीकार किया है और (यत्) जो [उसका] (शरीरम्) शरीर [अस्तित्व] है, वह (बृहन्) बड़ा (अद्रिः) कठोर (अभवत्) हुआ है ॥५॥
भावार्थ
सर्वव्यापी परमेश्वर ने अपनी सत्ता से उपयोगी पदार्थों को उत्पन्न करके सब प्राणियों को अन्न आदि पदार्थ देकर पुष्ट किया है ॥५॥
टिप्पणी
५−(देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (भागः) भग-मतुबर्थे-अण्। भगवान्। ऐश्वर्यवान् (उपनाहः) नित्यसम्बन्धी (एषः) ऋषभः (अपाम्) जलानाम् (रसः) रसरूपः (ओषधीनाम्) अन्नादीनाम् (सोमस्य) अमृतस्य (भक्षम्) भोगम् (अवृणीत) स्वीकृतवान् (बृहन्) महान् (अद्रिः) अ० ५।२०।१०। अद भक्षणे क्रिन्। भक्षणीयपदार्थानां राशिः (अभवत्) (यत्) (शरीरम्) अस्तित्वम् ॥
विषय
शरीरं बृहन् अद्रिः
पदार्थ
१. वे प्रभु (देवानां भाग:) = दिव्यवृत्ति के सब पुरुषों से सेवनीय हैं [भज सेवायाम्]। (एष:) = यह (उपनाह:) = [नह बन्धने] संसार के सब पिण्डों को एक सूत्र में बाँधनेवाला है-सूत्रों का सूत्र है। (अपाम्) = जलों का, (ओषधीनाम्) = ओषधियों का (घृतस्य) = घृत का (रस:) = रस प्रभु ही हैं। २. (शक्रः) = वे शक्तिशाली प्रभु हम पुत्रों के लिए (सोमस्य भक्षम्) = सोम के भोजन को (अवृणीत) = वरते हैं, अर्थात् प्रभु हमारे लिए सौम्य भोजनों को ही नियत करते हैं। इस भोजन से (यत् शरीरम्) = जो यह शरीर है, वह (बृहन् अद्रि:) = एक बड़े पर्वत की भाँति (अभवत्) = हो जाता है। यह शरीर पत्थर के समान दृढ़ हो जाता है। सौम्य भोजनों से उत्पन्न शक्ति शरीर में सुरक्षित होती हुई शरीर को सुदृढ़ बनाती है।
भावार्थ
प्रभु दिव्यवृत्तिवाले पुरुषों से उपासनीय हैं, सब लोकों को एक सूत्र में बाँधनेवाले हैं। जल, ओषधि व घृत में रसरूप में रह रहे हैं। सौम्य भोजनों के द्वारा हमारे शरीरों को सुदृढ़ बनाते हैं।
भाषार्थ
(एषः) यह परमेश्वर (देवानाम्) दिव्य जनों का (भागः) भजनीय है, (उपनाह) यह जगत् के घटकों को परस्पर बान्धता है, अथवा भजन कर्ताओं के कष्टों के लिये यह अध्यात्म मरहमरूप हैं, (अपाम्) जलों का (रसः) शिवतम रसरूप है, (ओषधीनाम्) ओषधियों के और (घृतस्य) घृत के (रसः) स्वादिष्ट रसवत् आनन्द रसरूप है। वह (सोमस्य) भक्तिरस के (भक्षम्) भक्षण को (अवृणीत्) स्वीकार करता है,(शक्रः) वह शक्तिशाली है। उस की कृपा से (यत्) जो (शरीरम्) शरीर है वह (बृहद्-अद्रिः१) बड़े पर्वत के सदृश (अभवत्) सुदृढ़ हो जाता है।
टिप्पणी
[उपनाहः= उप + नह बन्धने (दिवादिः), तथा "An unguent applied to a wound or sore (आप्टे)] [१. एह्यश्मानमातिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः (अथर्व० २।१३।४)। मन्त्र में भी तनू अर्थात् शरीर को पत्थर समान दृढ़ करने का वर्णन हुआ है।]
विषय
ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(एषः) यह पूर्वोक्त ऋषभ नाम से कहा गया ईश्वर ही (देवानाम्) समस्त देवों का (भागः) भजन करने योग्य, आश्रय स्थान, और (उपनाहः) अति समीपतम होकर उनको परस्पर बांध कर वश करने वाले, उनमें पिरोये सूत्र के समान है। और वही (अपां रसः) सूक्ष्म ‘आपः’ रूप परम प्रकृति के परमाणुओं का सूक्ष्मरस अर्थात् उनके भीतर उनको भी धारण करने हारा शक्तिरूप होकर उनमें भी व्यापक है। और वही (ओषधीनां रसः) ओषधियों, दिव्य शक्तियों अथवा अग्निमय रेतस पदार्थ के धारण करने वाले सूर्यों और (घृतस्य रसः) स्वतः तैजस द्रव्य के परम रूप का भी स्वयं धारण करने वाला ‘रस’ रूप है। वही (शक्रः) सर्व शक्तिमान् होकर (सोमस्य) उत्पन्न इस जगत् के या जीव संसार के (भक्षम्) प्राण को (अवृणीत) वश किये हुए हैं। और (यत्) जो स्वयं (शरीरम्) सबका आश्रय होकर (बृहत्) सबसे महान् (अद्रिः) अखण्ड, सबको अपने में ग्रस लेने वाला, संहारकारी (अभवत्) होता है। (१) ‘अपां रसः’—‘स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतद् आह, अर्थात् [ स्वधा=रसः ] इति श० ५। ४। ३। ७॥ (२) ‘ओषधयः’—जगत्यः ओषधयः। श० १। २। २। २॥ ओषधयो वै देवानां पत्न्यः। श० ६। ५। ४। ४॥ प्रजापतिस्तां आहुतिम अग्नौ व्यौक्षत् ओषं धयेति। ततः ओषधयः समभवन् तस्मादोषधयो नाम। श० २। २। ४। ५॥ (३) ‘सोमःस्वा वै मे एषा [ मूर्त्तिः ] इति तस्मात् सोमो नाम’। श० ३। ९। ४। २२॥ (४) ‘भक्षम्’—प्राणो वै भक्षः। श० ४। २। १। २९॥ (५) शरीरम्’—अथ यत् सर्वमस्मिन्नश्रयन्त तस्साद् उ शरीरम्। श०६। १। १। ४॥ (१) रस का अर्थ स्वधा है अर्थात् स्वयं धारण करने हारा। (२) देव दिव्य पदार्थों की शक्तियां ओषधि कहाती हैं, जिनमें परमात्मा ने अग्नि पदार्थ स्थापित किया है। वे सूर्य आदि पदार्थ जगती सौरमण्डल आदि ‘ओषधि’ शब्द से कहे जाते हैं। (३) प्रजापति का अपना व्यक्त शरीर-जगत् सोम है। (४) ‘भक्ष’ प्राण का नाम है। (५) वह इस समस्त जगत् का आश्रय है अतः परमात्मा ‘शरीर’ कहाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
Darling love and worship of the divines, it is the soothing balm of the human hearts in affliction. It is the very life and sweetness of waters, herbs and ghrta. Mighty powerful, it creates and gives us the taste and exhilaration of soma, and, infinite as it is, the cloud could be the one instance of its manifestive presence and generosity.
Translation
He is the proximate part of the bounties of Nature; (he is) the essence of the herbs and of ghee. (He is) the draught of semen, which the mighty one chooses and his body becomes just a huge mountain.
Translation
He is the abode and store of noble qualities, He pervading all the things is like the essence of waters, herbs and ghee. Omnipotent he consumes the world at the time of dissolution and these great mountains and clouds are his body.
Translation
This God is the last resort ofthe learned in their contemplation. He, due to proximity unifies and keeps them under His control. He sustains the subtle atoms of Matter, divine forces, and luminous objects. The Omnipotent God, controls the life ofsouls in the world, and affording shelter to all, being Most Mighty, Indivisible, brings about their dissolution.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (भागः) भग-मतुबर्थे-अण्। भगवान्। ऐश्वर्यवान् (उपनाहः) नित्यसम्बन्धी (एषः) ऋषभः (अपाम्) जलानाम् (रसः) रसरूपः (ओषधीनाम्) अन्नादीनाम् (सोमस्य) अमृतस्य (भक्षम्) भोगम् (अवृणीत) स्वीकृतवान् (बृहन्) महान् (अद्रिः) अ० ५।२०।१०। अद भक्षणे क्रिन्। भक्षणीयपदार्थानां राशिः (अभवत्) (यत्) (शरीरम्) अस्तित्वम् ॥
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