अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्ष॑ ऋष॒त्यव॑र्तिं हन्ति॒ चक्षु॑षा। शृ॒णोति॑ भ॒द्रं कर्णा॑भ्यां॒ गवां॒ यः पति॑र॒घ्न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठशृङ्गा॑भ्याम् । रक्ष॑: । ऋ॒ष॒ति॒ । अव॑र्तिम् । ह॒न्ति॒ । चक्षु॑षा । शृ॒णोति॑ । भ॒द्रम् । कर्णा॑भ्याम् । गवा॑म् । य: । पति॑: । अ॒घ्न्य: ॥४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
शृङ्गाभ्यां रक्ष ऋषत्यवर्तिं हन्ति चक्षुषा। शृणोति भद्रं कर्णाभ्यां गवां यः पतिरघ्न्यः ॥
स्वर रहित पद पाठशृङ्गाभ्याम् । रक्ष: । ऋषति । अवर्तिम् । हन्ति । चक्षुषा । शृणोति । भद्रम् । कर्णाभ्याम् । गवाम् । य: । पति: । अघ्न्य: ॥४.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[वह परमेश्वर] (शृङ्गाभ्याम्) दो प्रधानताओं [प्रजापालन और शत्रुनाशन] से (रक्षः) राक्षस [विघ्न] को (ऋषति) हटाता है, (चक्षुषा) नेत्र से (अवर्तिम्) निर्जीविका (हन्ति) नाश करता है। (कर्णाभ्याम्) दोनों कानों से (भद्रम्) कल्याण (शृणोति) सुनता है, (यः) जो (अघ्न्यः) अहिंसक प्रजापति (गवाम्) सब लोकों का (पतिः) स्वामी है ॥१७॥
भावार्थ
सर्वद्रष्टा, सर्वश्रोता परमेश्वर सब क्लेशों का नाश करके अपने भक्तों को आनन्द देता है ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(शृङ्गाभ्याम्) अ० ८।३।२४। प्रधान्याभ्यां प्रजापालनशत्रुनाशनाभ्याम् (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (ऋषति) रिषति। हिनस्ति। निर्गमयति (अवर्तिम्) निर्जीविकाम् (हन्ति) नाशयति (चक्षुषा) दृष्ट्या (शृणोति) (भद्रम्) कल्याणम् (कर्णाभ्याम्) श्रोत्राभ्याम् (गवाम्) पृथिव्यादिलोकानाम् (यः) परमेश्वरः (पतिः) स्वामी (अघ्न्यः) अहिंसकः। प्रजापतिः ॥
विषय
वेदज्ञान व सुन्दर जीवन
पदार्थ
१.(य:) = जो भी (गवां पति:) वेदवाणियों का स्वामी बनता है, वह (अघ्न्य:) = विषय-वासनाओं से अहन्तव्य होता है। यह वैषयिक वृत्तियोंवाला नहीं बनता। (कर्णाभ्यां भद्रं शृणोति) = कानों से भद्र को ही सुनता है। यह निन्दा की बातों को सुनने में रुचि नहीं लेता। (शृंगाभ्याम्) = [शृणाति] शरीरस्थ दोषों को विनष्ट करनेवाले प्राणापानरूप शृंगों से (रक्ष:) = सब रोगकृमियों को (ऋषति) = नष्ट कर देता है तथा (चक्षुषा) = ज्ञानदृष्टि से (अवर्ति हन्ति) = दौर्भाग्य [bad fortune, poverty, distress, want] को दूर भगाता है।
भावार्थ
वेदवाणियों का अध्येता 'विषयों में नहीं फँसता, कानों से सदा शुभ सुनता है, प्राणसाधना द्वारा रोगकृमियों का विनाश करता है तथा ज्ञानदृष्टि से दीर्भाग्य को दूर करता है।
भाषार्थ
(शृङ्गाभ्याम्) दो सीगों द्वारा (रक्षः) राक्षस को (ऋषति) हटाता हैं, (चक्षुषा)१ चक्षु द्वारा (अवर्तिम्) अनाजीविका का (हन्ति) हनन करता है, (कर्णाभ्याम्) दो कानों द्वारा (भद्रम्) भद्र प्रार्थनावचनों को (शृणोति) सुनता है (यः) जोकि (अघ्न्यः) अहन्तव्य, अत्याज्य अर्थात् प्रापणीय परमेश्वर (गवां पतिः) गौओं का पति है।
टिप्पणी
[मन्त्र १७ से २४ तक मुख्यरूप में "ऋषभ" द्वारा परमेश्वर का, और गौणरूप में बलीवर्द का वर्णन है। अथर्व ९।७।१ में “प्रजापतिश्च परमेष्ठी च शृङ्गे" कहा है। प्रजापति है उत्पन्न पदार्थों का स्वामी परमेश्वर, और परमेष्ठी है परमस्थान जीवात्मा में स्थित परमेश्वर। इन दो स्वरूपों द्वारा तामसिक-राक्षसों काम, क्रोध, लोभ आदि को हटाता है। वह निज कृपा दृष्टि (चक्षुषा) द्वारा अनाजीविका का हनन कर देता है, और चक्षुरूपी सूर्य द्वारा वर्षा आदि करा कर, अन्नोत्पादन करके अनाजीविका का हनन करता है। परमेश्वर के प्राकृतिक कर्ण तो नहीं है परन्तु “पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः" (उपनिषद्) के अनुसार कर्णों के विना सुनने से कर्णों का आरोप किया है। वह भद्र-प्रार्थनाओं को सुनकर प्रार्थी की अभिलाषा को पूर्ण करता है, वह अभद्र प्रार्थनाओं को नहीं सुनता। वह "गवाम्" वेदवाणियों का पति है, "गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। वह "अघ्न्यः" है, न हनन करता और न उसका हनन हो सकता है। "यो न हन्यते न हन्तीति वा स अघ्न्य (उणा० ४।११३, दयानन्द]। [१. चक्षोः सूर्योऽअजायत (यजु० ३१।१२)। बलीवर्द निज चक्षु द्वारा अनाजीविका का हनन कैसे कर सकता है। उस की कृपा दृष्टि से कृषि द्वारा अनाजीविका का हनन सम्भव है– यह क्लिष्ट कल्पना है।]
विषय
ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (गवां पतिः) गौ=वेदवाणियों और पृथ्वी आदि लोकों का (अघ्न्यः पतिः) अविनाशी स्वामी, परमात्मा है वह (शृङ्गाभ्यां) सींगों के समान तीक्ष्ण व्यक्त, अव्यक्त दोनों प्रकार के साधनों से (रक्षः) पीड़कों को (ऋषति) मारता है, और (चक्षुषा) अपने सूर्य समान दिव्य तेजोमय चक्षुके निमेष उन्मेष से ही (अवर्तिम्) असत्, अविद्यमान अभाव पदार्थ का (हन्ति) विनाश करता और सत् पदार्थों को उत्पन्न करता है। वह (कर्णाभ्यां) कानों से सदा (भद्रम्) कल्याणकारी वचनों को (शृणोति) सुन लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rshabha, the ‘Bull’
Meaning
They visualised that the Rshaba destroys evil with its horns, i.e., the blaze of its lustre and splendour, and it destroys want and distress by its benign eye. The master, protector and sustainer of the stars, planets and the words of eternal wisdom hears the good things we say and present in prayer.
Translation
With horns he pierces through the harmful germs; with eyes he strikes the famine dead; with ears he listens to auspicious tidings - he, the inviolable lord of the cows.
Translation
This imaginary Worldly unkillable Rishabha which is the male. of the all moving objects in the form of planets, cows etc. pierces the disease-creating germs with its horns, kills the troubles with its eyes and hears the good with its ears.
Translation
Immortal God, Who is the Lord of the Vedas and innumerable worlds, removes obstacles with His two presiding forces, banishes poverty with His benign eye, and bears good tidings with His ears.
Footnote
God has no Physical eye, but possesses the power of a thousand eyes. He is All seeing. He has no physical ear, but hears all suppliants. Hs is All-hearing. Two presiding forces: The powers of protecting the virtuous and punishing the wicked.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(शृङ्गाभ्याम्) अ० ८।३।२४। प्रधान्याभ्यां प्रजापालनशत्रुनाशनाभ्याम् (रक्षः) राक्षसम्। विघ्नम् (ऋषति) रिषति। हिनस्ति। निर्गमयति (अवर्तिम्) निर्जीविकाम् (हन्ति) नाशयति (चक्षुषा) दृष्ट्या (शृणोति) (भद्रम्) कल्याणम् (कर्णाभ्याम्) श्रोत्राभ्याम् (गवाम्) पृथिव्यादिलोकानाम् (यः) परमेश्वरः (पतिः) स्वामी (अघ्न्यः) अहिंसकः। प्रजापतिः ॥
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