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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    80

    उपे॒होप॑पर्चना॒स्मिन्गो॒ष्ठ उप॑ पृञ्च नः। उप॑ ऋष॒भस्य॒ यद्रेत॒ उपे॑न्द्र॒ तव॑ वी॒र्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । इ॒ह । उ॒प॒ऽप॒र्च॒न॒ । अ॒स्मिन् । गो॒ऽस्थे । उप॑ । पृ॒ञ्च॒ । न॒: । उप॑ । ऋ॒ष॒भस्य॑ । यत् । रेत॑: । उप॑ । इ॒न्द्र॒ । तव॑ । वी॒र्य᳡म् ॥४.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपेहोपपर्चनास्मिन्गोष्ठ उप पृञ्च नः। उप ऋषभस्य यद्रेत उपेन्द्र तव वीर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । इह । उपऽपर्चन । अस्मिन् । गोऽस्थे । उप । पृञ्च । न: । उप । ऋषभस्य । यत् । रेत: । उप । इन्द्र । तव । वीर्यम् ॥४.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (उपपर्चन) हे समीप सम्बन्धवाले [परमेश्वर !] (इह) यहाँ पर (अस्मिन्) इस (गोष्ठे) वाणियों के स्थान में (नः) हमें (उप उप) अत्यन्त समीप से (पृञ्च) मिल। (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवाले परमात्मा ! (ऋषभस्य तव) तुझ श्रेष्ठ का (यत्) जो (रेतः) पराक्रम और (वीर्यम्) वीरत्व है, [उसके साथ] (उप उप) अति समीप से [मिल] ॥२३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर से घनिष्ठ सम्बन्ध करके अपना बल पराक्रम बढ़ावे ॥२३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ६ सू० २८ म० ८ ॥

    टिप्पणी

    २३−(उप उप) अति समीपम् (इह) अत्र (उपपर्चन) पृची संपर्के-ल्यु। हे समीपसम्बन्धिन् (अस्मिन्) (गोष्ठे) वाचां स्थाने (पृञ्च) संयोजय (नः) अस्मान् (उप) (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य (यत्) (रेतः) पराक्रमः (उप) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (तव) (वीर्यम्) वीरत्वं बलम् ॥

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    विषय

    रेतस व वीर्य

    पदार्थ

    १. हे (उपपर्चन) = अत्यन्त समीपता से सबके साथ सम्पर्कवाले प्रभो! (इह) = इस जीवन में (उप) = आप हमें समीपता से प्राप्त होओ। (अस्मिन् गोष्ठे) = इस ज्ञानसभा में (न: उपपृच) = हमारे साथ सम्पृक्त होओ। ज्ञान-चर्चाओं को करते हुए हम आपके साथ सम्पृक्त हों। २. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो! (ऋषभस्य तव) = सर्वव्यापक व सर्वद्रष्टा आपका (यत् रेत:) = जो प्रजनन सामर्थ्य व (वीर्यम्) = रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करनेवाला सामर्थ्य है, वह हमें (उप उप) = समीपता से प्राप्त हो।

    भावार्थ

    ज्ञानचर्चाओं को करते हुए हम प्रभु से दूर न हों। प्रभु से हमें रेतस् व वीर्य की प्राप्ति हो।

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    भाषार्थ

    (इह उपवर्चन) इस संसार में समीपता से सम्पर्क वाले ! (नः अस्मिन् गोष्ठे) हमारे इस गोष्ठ में (उप पृञ्च) तू समीपता से सम्पर्क कर। (ऋषभस्य) तुझ श्रेष्ठ की (यद् रेतः) जो शक्ति है वह (उप) हमारे समीप हो जाय ! (इन्द्र) हे परमैश्वर्य वाले ! (तव वीर्यम्) तेरा सामर्थ्य (उप) हमारे समीप हो जाय।

    टिप्पणी

    [उपपर्चन= उप (समीप) + पर्चन (पृची सम्पर्क, अदादिः) + ल्युट् (कर्तरि)। गोष्ठे= मन में या शरीर में (मन्त्र १७)। गावः= इन्द्रियाणि तिष्ठन्ति अस्मिन् इति गोष्ठः। परमेश्वर सर्वव्यापक होने से सबके समीप है। उपासकों की भावना यह है कि सर्वव्यापक होने पर भी हमारी उपासनाओं तथा जीवनों में उस की सत्ता अनुभूत नहीं हो रही। इस लिये वे प्रार्थना करते हैं कि तेरी शक्ति और तेरा सामर्थ्य हमें प्राप्त हो, ताकि तेरी सत्ता की समीपता हमें अनुभूत हो सके]।

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    विषय

    ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार पशुशाला में गोपाल चाहता है कि सांड गौशाला में आकर गौओं को गर्भित करे उसी प्रकार हे (उपपर्चन) अति समीप हम से अनन्यभाव से सम्पृक्त सदा के संगी परमात्मन् ! (इह) इस अन्तःकरण में (उप) तुम सदा निवास करते हो, (अस्मिन्) इस (गोष्ठे) गौ, इन्द्रियों के स्थिति स्थान, देह या अन्तःकरण में (नः) हमें सदा (उप पृञ्च) प्राप्त हो। (ऋषभस्य) उस व्यापक श्रेष्ठ का (यत्) जो भी (रेतः) तेज या वीर्य, उत्पादक सामर्थ्य है. हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (उप) साक्षात् वह (तव वीर्यम्) तेरा ही बल है।

    टिप्पणी

    ‘उपेदमुपपचनमासु गोषूपपृच्यताम्। उप ऋषभस्य रेतस्युपेन्द्र तववीर्ये’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    O Lord of abundance at the closest in presence, in this earthly home of our life and spirit, in the midst of this manly madness of noise, pray be close to us in direct awareness. Be close to us with the divine vitality of your generative creativity. Be close to us with the strength and valour of divine omnipotence.

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    Translation

    May you here, in this our cow-stall, impregnate (the cows); remain with us. What is the seed of the bull, O resplendent Lord, that is; indéed, your might.

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    Translation

    O God, thou art ever nearest to us, please be attained by us in our conseience which is the bulwark of many organs of our. O Lord come to us with the strength and splendor of powerful thine.

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    Translation

    O God, our constant companion, Thou residest here in the mind. May we ever realize Thee in our heart. O God, the strength of creation, that lies in Thee, the Almighty, is verily Thy strength!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(उप उप) अति समीपम् (इह) अत्र (उपपर्चन) पृची संपर्के-ल्यु। हे समीपसम्बन्धिन् (अस्मिन्) (गोष्ठे) वाचां स्थाने (पृञ्च) संयोजय (नः) अस्मान् (उप) (ऋषभस्य) श्रेष्ठस्य (यत्) (रेतः) पराक्रमः (उप) (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (तव) (वीर्यम्) वीरत्वं बलम् ॥

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