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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ऋषभः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋषभ सूक्त
    76

    इन्द्र॒स्यौजो॒ वरु॑णस्य बा॒हू अ॒श्विनो॒रंसौ॑ म॒रुता॑मि॒यं क॒कुत्। बृह॒स्पतिं॒ संभृ॑तमे॒तमा॑हु॒र्ये धीरा॑सः क॒वयो॒ ये म॑नी॒षिणः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । ओज॑: । वरु॑णस्य । बा॒हू इति॑ । अ॒श्विनो॑: । अंसौ॑ । म॒रुता॑म् । इ॒यम् । क॒कुत् । बृह॒स्पति॑म् । सम्ऽभृ॑तम् । ए॒तम् । आ॒हु॒: । ये । धीरा॑स: । क॒वय॑: । ये । म॒नी॒षिण॑: ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्यौजो वरुणस्य बाहू अश्विनोरंसौ मरुतामियं ककुत्। बृहस्पतिं संभृतमेतमाहुर्ये धीरासः कवयो ये मनीषिणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । ओज: । वरुणस्य । बाहू इति । अश्विनो: । अंसौ । मरुताम् । इयम् । ककुत् । बृहस्पतिम् । सम्ऽभृतम् । एतम् । आहु: । ये । धीरास: । कवय: । ये । मनीषिण: ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) सूर्य का (ओजः) बल, (वरुणस्य) जल का (बाहू) दो भुजा [समान], (अश्विनोः) दिन और रात का (अंसौ) दो कन्धों (समान) और (मरुताम्) प्राण अपान आदि पवनों की (इयम्) यह (ककुत्) सुख का शब्द करनेवाली शक्ति [वह परमेश्वर है]। (एतम्) इसी को (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े लोकों का स्वामी (संभृतम्) यथावत् पोषणकर्ता (आहुः) वे बताते हैं, (ये) जो (धीरासः) धीर (कवयः) बुद्धिमान् और (ये) जो (मनीषिणः) मन की गतिवाले हैं ॥८॥

    भावार्थ

    वह परमेश्वर सब जगत् का आश्रयदाता है, उसको तत्त्वदर्शी लोग पहिचानकर आनन्द पाते हैं ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(इन्द्रस्य) सूर्यस्य (ओजः) बलम् (वरुणस्य) जलस्य (बाहू) भुजौ यथा (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अहोरात्रयोः-निरु० १२।१। (अंसौ) अम गतौ-स। स्कन्धौ यथा (मरुताम्) अ० १।२०।१। प्राणापानादिवायूनाम् (इयम्) (ककुत्) कं सुखं कौति, क+कु शब्दे-क्विप्, तुक्। सुखस्य शब्दयित्री शक्तिः (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां स्वामिनम् (संभृतम्) क्विबन्तः। संभर्तारम् (एतम्) ऋषभम् (आहुः) कथयन्ति (ये) (धीरासः) धीमन्तः (कवयः) मेधाविनः (ये) (मनीषिणः) अ० ३।५।६। मनस्+ईषा-इनि। मनसो गतियुक्ताः ॥

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    विषय

    धीरासः, कवयः, मनीषिणः

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का (ओज:) = बल हैं, जितेन्द्रिय पुरुष में बल के रूप में रहते हैं, (वरुणस्य) = पाप से अपना निवारण करनेवाले की (बाहू) = भुजाएँ हैं [बाह प्रयले]। वस्तुत: प्रभु से ही उसे पापनिवारक शक्ति प्राप्त होती है। (अश्विनो:) = कर्मों में व्याप्त [अश् व्याप्तौ] रहनेवाले पति-पत्नी के वे प्रभु (अंसौ) = कन्धों के समान हैं। प्रभुकृपा से ही वे कर्मव्याप्त पति पत्नी अपने कन्धों पर गृहस्थ-भार को उठाने में समर्थ होते हैं। (मरुताम्) = [मरुतः प्राणाः, मितराविण:] प्राणसाधक व मितभाषी-कर्मशूर पुरुषों के (इयं ककुत्) = ये प्रभु शिखर हैं, अर्थात् इन्हें वे शिखर पर पहुँचानेवाले हैं। २. (एतम्) = इस प्रभु को (बृहस्पतिम्) = आकाश आदि सब बड़े बड़े लोकों का स्वामी तथा (संभृतम्) = उनका सम्यक् भरण करनेवाला (आहुः) = कहते हैं। (ये) = जोकि (धीरास:) = धीर है [धी ईर], बुद्धिपूर्वक गति करनेवाले हैं, (कवय:) = क्रान्तदर्शी, तत्त्वदर्शी हैं व (मनीषिण:) = [मनसः ईशते] मन का शासन करनेवाले हैं, वे पुरुष प्रभु को ऐसा ही कहते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ही सब लोक-लोकान्तरों के स्वामी व सम्यक भरण करनेवाले हैं। वे जितेन्द्रिय पुरुष को शक्ति देते हैं, पाप-निवारण की वृत्तिवाले को पाप-निवारण में समर्थ करते हैं, कर्मव्याप्त पति-पत्नी को गृहस्थ-भार उठाने में समर्थ करते हैं तथा प्राणसाधक मितरावी पुरुषों को शिखर पर पहुँचाते हैं।'धीर, कवि व मनीषी' प्रभु को इसी रूप में देखते हैं।

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    भाषार्थ

    परमेश्वर (इन्द्रस्य) विद्युत् का (ओजः) ओजस् रूप है, (वरुणस्य) अन्तरिक्ष का आवरण करने वाली वायु का (बाहू) यश-और-बल रूप है, (अश्विनोः अंसौ) पृथिवी का स्कन्ध रूप और द्यौः का स्कन्ध रूप है, (मरुताम्) मानसून वायुओं की (इयं ककुद्) यह जो ककुद् अर्थात् मेघ है, परमेश्वर तद्रूप है। इस प्रकार (ये) जो (धीरासः) मेधावी (कवयः) वेद काव्य के अभिज्ञ, तथा (ये) जो (मनीषिणः) मनीषी लोग हैं वे (एनम्) इस परमेश्वर को (संभृतम्) संहृत अर्थात् एकत्रित रूप (बृहस्पतिम्) महाशक्तियों-का-पति (आहुः) कहते हैं।

    टिप्पणी

    [विद्युत् मध्यमस्थानी है, उसके साथ वरुण अर्थात् वायु भी मध्यमस्थानी है। बाहू=बाहुभ्यां यशोवलम् (वैदिक सन्ध्या-मन्त्र)। परमेश्वर पृथिवी और द्यौः को मानो निज कन्धों का सहारा दिये हुए है। मरुताम्= मानसून वायु (अथर्व० ४।२७।४, ५) मरुतों की ककुद् अर्थात् उच्चशिखिर है मेघ। परमेश्वर मानो तद्रूप हुआ वर्षा करता है। धीरासः= धीरः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)। बलीवर्द पक्ष में प्रसिद्ध अर्थ: "इसका ओज इन्द्र का है, दो बाहुएं अर्थात् अगली दो टांगें वरुण की हैं, दो कन्धे अश्वियों के है, ककुद [Hump] मरुतों की है। इस प्रकार दैविकरूप में इसे सम्भृत बृहस्पति कहते हैं। बलीवर्द, कृषि द्वारा तथा भारोद्वहन द्वारा, ओज रूप है। यह कथन राष्ट्रिय दृष्टि से हुआ है। अश्विनोः बाहु= माता-पिता के रूप में विभक्त प्रजाजनों के कामों में सहारा देने वाले दो बाहुओं के सदृश यह सहायक है। मरुताम्= कृषि द्वारा सुवर्ण आदि सम्पत्तियों की प्राप्ति के लिये यह दो-स्कन्धरूप है। यह भी राष्ट्रिय दृष्टि से कथन हुआ है। "मरुत् हिरण्यनाम" (निघं० १।२) तथा "मरुद्भ्यो१ वैश्यम्” (यजु० ३०।५), अर्थात् हिरण्यादि सम्पत्तियों की प्राप्ति के लिये तथा वैश्यों के लिये यह ककुद् है, उच्चशक्ति रूप है। बृहस्पतिः = बृहतः गोवंशस्य पतिः] [१. जिसने परमेश्वर का साक्षात् कर लिया, उस द्वारा दी गई एक ही ब्राह्माहुति, साक्षात् कराने के लिये पर्याप्त होती है।]

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    विषय

    ऋषभ के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये) जो (धीरासः) ध्यान योगी, (कवयः) क्रान्त दर्शी, मेधावी, (मनीषिणः) मननशील विद्वान् ऋषि हैं वे (बृहस्पतिम्) ‘बृहत्’ बड़े बड़े लोकों के स्वामी प्रभु को (एतम्) इस रूप से (संभृतम्) कल्पना किया गया या बलसम्पन्न हुआ (आहुः) कहते हैं कि इस वृषभ के रूप में (ओजः) बल वीर्य तो (इन्द्रस्य) इन्द्र का बना है, (बाहू) बहुएं (वरुणस्य) वरुण की, (अंसौ) कन्धे (अश्विनोः) अश्विदेव अर्थात् दिन रात्रि के बने हैं. (ककुत्) कोहान का भाग (मरुताम्) मरुद्गण, प्राणों और वायुओं का बना है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ऋषभो देवता। १-५, ७, ९, २२ त्रिष्टुभः। ८ भुरिक। ६, १०,२४ जगत्यौ। ११-१७, १९, २०, २३ अनुष्टुभः। १२ उपरिष्टाद् बृहती। २१ आस्तारपंक्तिः। चतुर्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rshabha, the ‘Bull’

    Meaning

    Those who are thinkers, poets of imaginative vision, men of stable mind and constant faith say: Rshabha is the omnipotence of Indra, the arms of Varuna, all-embracing space, the shoulders of Ashvins, dynamics of the existential circuit, and the force on top of Maruts, cosmic winds and storms of energy explosions. It is Brhaspati, infinite lord of expansive universe, that integrates materials of unimaginable variety and holds them together as one single living evolving reality of divine nature.

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    Translation

    Vigour of the resplendent Lord, two arms of the venerable Lord, two shoulders of the twins-divine (asvinau), and the hump of the cloud-bearing winds is he. They, the resolute sages and wise thinkers. call this presented one the Lord supreme.

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    Translation

    In Him has been held the vigor of electricity. the active forms of varuna, the water, the supporting powers of the sun and the earth and the strength of winds. He is the lord of all the grand worlds of the universe and to Him those learned men who are of firm knowledge and those who have full control over mind call as. the compact of all these powers.

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    Translation

    God possesses the vigor of the Sun, both the arms of water, the shoulders of day and night, and the joy infusing power of the vital breaths. Prana and Apana. They who are sages, wise and learned Rishis, call Him the Lord of mighty worlds, and power.

    Footnote

    Arms of water: Sweetness, coolness. Shoulders of day and night: Brilliance and heat of the day, and calmness of night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(इन्द्रस्य) सूर्यस्य (ओजः) बलम् (वरुणस्य) जलस्य (बाहू) भुजौ यथा (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अहोरात्रयोः-निरु० १२।१। (अंसौ) अम गतौ-स। स्कन्धौ यथा (मरुताम्) अ० १।२०।१। प्राणापानादिवायूनाम् (इयम्) (ककुत्) कं सुखं कौति, क+कु शब्दे-क्विप्, तुक्। सुखस्य शब्दयित्री शक्तिः (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां स्वामिनम् (संभृतम्) क्विबन्तः। संभर्तारम् (एतम्) ऋषभम् (आहुः) कथयन्ति (ये) (धीरासः) धीमन्तः (कवयः) मेधाविनः (ये) (मनीषिणः) अ० ३।५।६। मनस्+ईषा-इनि। मनसो गतियुक्ताः ॥

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