अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 132/ मन्त्र 5
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
कुला॑यन् कृणवा॒दिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकुला॑यन् । कृणवा॒त् । इति॑ ॥१३२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
कुलायन् कृणवादिति ॥
स्वर रहित पद पाठकुलायन् । कृणवात् । इति ॥१३२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 132; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
अतः उपासक हम ब्रह्म को ही (कुलायम्) अपना घोंसला अर्थात् आश्रय (कृणवात् इति) बनाए। अर्थात् जैसे पक्षी-शावक घोंसले में विश्राम पाता है, वैसे उपासक ब्रह्मरूपी घोंसले को अपना विश्राम-स्थान बनाए।