अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 12
यः श॑म्ब॑रं प॒र्यत॑र॒त्कसी॑भि॒र्योऽचा॑रुका॒स्नापि॑बत्सु॒तस्य॑। अ॒न्तर्गि॒रौ यज॑मानं ब॒हुं जनं॒ यस्मि॒न्नामू॑र्छ॒त्स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । शम्ब॑रम् । परि॑ । अत॑र॒त् । क॑सीभि॒: । य: । अचा॑रु । का॒स्ना । अपि॑बत् । सु॒तस्य॑ ॥ अ॒न्त: । गि॒रौ । यज॑मानम् । ब॒हुम् । जन॒म् । यस्मि॑न् । आमू॑र्च्छ॒त् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शम्बरं पर्यतरत्कसीभिर्योऽचारुकास्नापिबत्सुतस्य। अन्तर्गिरौ यजमानं बहुं जनं यस्मिन्नामूर्छत्स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शम्बरम् । परि । अतरत् । कसीभि: । य: । अचारु । कास्ना । अपिबत् । सुतस्य ॥ अन्त: । गिरौ । यजमानम् । बहुम् । जनम् । यस्मिन् । आमूर्च्छत् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(यस्मिन् गिरौ अन्तः) जिस पर्वत में रहनेवाले (यजमानम्) उपासकों को, (बहुं जनम्) तथा अन्य बहुत जनों को, शम्बर ने (आमूर्छत्) जल को रोके रखने के कारण मूर्छित कर रखा था, उस (शम्बरम्) हिमपर्वत को (यः) जिसने (कसीभिः) जल को निष्कासित करनेवाली, (अचारुकास्ना) तथा अचर अर्थात् अचल, स्थिररूप में पड़नेवाली सौर-रश्मियों द्वारा (पर्यतरत्) काट दिया। और परिणाम में (सुतस्य) शम्बर से प्रकट हुए जल को (अपिबत्) पिलाया—(जनासः) हे प्रजाजनो (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
टिप्पणी -
[(शम्बरम्) water and mountain (आपटे)। चारु=चरतेः। अचारु=अचल, अर्थात् ग्रीष्मऋतु में शम्बर पर जब सूर्य की किरणें स्थिररूप में पड़ती हैं, तब शम्बर का जल पिघल कर वह निकलता है, और पर्वतवासी जलपान करते हैं। कास्या=कास् दीप्तौ (आपटे)=प्रदीप्त और रश्मियों द्वारा। अपिबत्=अन्तर्भावित णिच् ।] अथवा—मन्त्र ११; १२ का अभिप्राय निम्नलिखित भी सम्भव है। जिसने शासन करनेवाले, तथा गुरु के अरुचिकर मौखिक सदुपदेशों द्वारा, शान्तिव्रतधारी ब्रह्मचारी को पूर्णतया तैरा दिया, और उसे आनन्दरस पिला दिया, तथा जिस पर्वत में अभ्यास करते हुए नाना उपासक-जनों को उसने समाधिनिद्रा में मूर्छित सा कर दिया, वह परमेश्वर है। [अचारुकास्ना=अचारुक+आस्ना=(मुखेन)। कसीभिः=कस् (शासने)।]