अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 11
यः श्म्ब॑रं॒ पर्व॑तेषु क्षि॒यन्तं॑ चत्वारिं॒श्यां श॒रद्य॒न्ववि॑न्दत्। ओ॑जा॒यमा॑नं॒ यो अहिं॑ ज॒घान॒ दानुं॒ शया॑नं॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । शम्ब॑रम् । पर्व॑तेषु । क्षि॒यन्त॑म् । च॒त्वा॒रिं॒श्याम् । श॒रदि॑ । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दत् ॥ ओ॒जा॒यमा॑नम् । य: । अहि॑म् । ज॒घान॑ । दानु॑म् । शया॑नम् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यः श्म्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दत्। ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शम्बरम् । पर्वतेषु । क्षियन्तम् । चत्वारिंश्याम् । शरदि । अनुऽअविन्दत् ॥ ओजायमानम् । य: । अहिम् । जघान । दानुम् । शयानम् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(पर्वतेषु) पर्वतों में (क्षियन्तम्) निवास किये हुए (शम्बरम्) जलमय हिमपर्वत को, (चत्वारिंश्याम्) चालीसवीं (शरदि) शरद् ऋतु में अर्थात् ४० वर्षों के पश्चात् (यः) जो (अविन्दत्) प्राप्त करता है, तथा (यः) जो (ओजायमानम्) उमड़े हुए, (दानुम्) जल देने की प्रवृत्तिवाले, (शयानम्) परन्तु अन्तरिक्ष में सोए पड़े से, अर्थात् जो अभी जलदान नहीं करता, उस (अहिम्) मेघ का (जघान) हनन करता है—(जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
टिप्पणी -
[शम्बरम्=उदकम् (निघं० १.१२)। मन्त्र में “शम्बर” पद द्वारा पर्वतों की घटियों में जमे हिमपर्वतों (Glaciers) का वर्णन हुआ है। अतिशीत के कारण पर्वत-घाटियों में बहती नदी जब हिममय हो जाती है, तो उसे हिमपर्वत (Glacier) कहते हैं। यह हिमपर्वत जलमय होते हैं। मानो इन्होंने इन पर्वतों में अपना निवासगृह बना लिया। क्योंकि ये वर्षों तक इन घाटियों में लेटे पड़े रहते है। लगभग ४० शरद्-ऋतुओं में एक हिम-पर्वत बन पाता है।] अथवा मन्त्र ११ का अभिप्रायः— जिसने, शान्तिव्रत को वरण किये हुए, पर्वतों में अभ्यास के लिए निवास करते हुए आदित्य ब्रह्मचारी को ४०वें वर्ष में प्राप्त किया; और जिसने ओजप्रकट करते हुए, जड़ काट देनेवाले, चित्त में सोए पड़े, अर्थात् जो अभी जागरितावस्था में उद्बुद्धावस्था में नहीं आया ऐसे (अहिम्) पाप-सांप का हनन कर दिया, वह परमेश्वर है। [शम्बरम्=शम् (शान्ति)+बरम्=(वरम्=वरण करना, स्वीकार करना)। पर्वतेषु=उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां, धिया विप्रो अजायत (यजु० २६.१५)। इस प्रकार पर्वतों में अभ्यास करने का विधान है। चत्वारिश्यां शरदि=ब्राह्मण का उपनयन आठवें वर्ष की आयु में होना चाहिए। ऐसा आश्वलायन गृह्यसूत्रों में लिखा है। यथा अष्टमे ब्राह्मणमुपनयेत् (आश्व० १.१९.१)। तदनन्तर ४० वर्ष ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके ब्रह्मचारी “आदित्य ब्रह्मचारी” बनता है। “शरत्” का अर्थ है—“विशीर्ण करनेवाली ऋतु”। ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यकाल में अपनी अविद्या और तज्जन्य पापों को विशीर्ण करता रहता है, इसलिए इस काल को शरत् कहा है। दानुम्=दाप् लवणे। पाप जीवन की जड़ काट कर उसे सुखा देता है, इसलिए वह दानु है। शयानम्=संस्काररूप में सोए पाप-संस्कारों के हनन करने को सूचित किया है।]