अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 10
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । हरी॒ इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ । शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥६९.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे । शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥६९.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(काम्या) योगसाधना के लिए चाही गई, (हरी) चित्त को अन्तर्मुख कर देनेवाली, (विपक्षसा) सुषुम्णा के दो पक्षों में अलग-अलग लगी हुई, (शोणा) तमः प्रधान तथा रजःप्रधान, (धृष्णू) मजबूत, (नृवाहसा) योगसाधना में नेतृरूप उपासकों को उनके उद्देश्य की ओर ले जानेवाली इड़ा और पिंगला नाड़ियों को, (अस्य) इस परमेश्वर के (रथे) रमणीय स्वरूप में (युञ्जन्ति) योगिजन, योगविधि द्वारा युक्त करते हैं, सम्बद्ध करते हैं। अथवा (अस्य) इस परमेश्वर द्वारा (काम्या) चाही गई, तथा (रथे) शरीर-रथ में (विपक्षसा) दोनों पार्श्वों में लगी हुई, (हरी) प्रत्याहार-योगसाधना द्वारा वशीकृत ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को, योगिजन, परमेश्वरीय इच्छा की पूर्ति के निमित्त (युञ्जन्ति) प्रयुक्त करते हैं। तब ये दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ (शोणा) विशेष-प्रगति से सम्पन्न होती हैं, (धृष्णू) पापधर्षक तथा (नृवाहसा) शरीर-रथ में शरीर-रथ के नेता जीवात्मा का वहन करने लगती हैं।
टिप्पणी -
[इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा=सुषुम्णा नाड़ी गुदा के निकट से मेरुदण्ड के भीतर होती हुई मस्तिष्क के ऊपर तक चली गई है। गुदा के स्थान के निकट से ही सुषुम्णा के वामभाग से इडा, और दक्षिण भाग से पिङ्गला, नासिका के मूलपर्यन्त चली गई है। भ्रूमध्य में ये तीनों नाड़ियाँ मिल जाती हैं। इडा को चन्द्र, तथा पिङ्गला को सूर्य भी कहते हैं। “पिङ्गला” नाड़ी दिन में सक्रिय रहती है, इसलिए यह रजःप्रधान नाड़ी है; और रात के समय “इडा” नाड़ी सक्रिय रहती है, इसलिए यह तम प्रधान है (देखो—पातञ्जल योगप्रदीप, रचयिता स्वामी ओमानन्द, आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर)। शोणा=इडा का वर्ण शुभ्र, तथा पिङ्गला का वर्ण पीतिमा लिए होता है, शौणृ वर्णे।] अथवा [विपक्षसा=शरीर के दोनों पार्श्वों में इन्द्रियाँ लगी हुई हैं, श्रोत्र दोनों ओर हैं, चक्षु दोनों ओर हैं, नासाछिद्र दोनों ओर हैं, जिह्वा बोलने और स्वाद लेने की दृष्टि से दो कार्य करती है—ज्ञानेन्द्रिय का भी और कर्मेन्द्रिय का भी। हाथ दोनों ओर हैं—इत्यादि। शोणा=शोणे गतौ।]