अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । स॒म्ऽस्थे । न । वृ॒ण्वते॑ । हरी॒ इति॑ । स॒मत्ऽसु॑ । शत्र॑व: ॥ तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥६९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः। तस्मा इन्द्राय गायत ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । सम्ऽस्थे । न । वृण्वते । हरी इति । समत्ऽसु । शत्रव: ॥ तस्मै । इन्द्राय । गायत ॥६९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यस्य) जिस परमेश्वर के (संस्थे) हृदयस्थ हो जाने पर (समत्सु) देवासुर-संग्रामों में, (शत्रवः) कामादि शत्रु (हरी) प्रत्याहार-सम्पन्न इन्द्रियाश्वों पर, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों पर, (वृण्वते न) आवरण नहीं डाल पाते, या उन्हें अपनाते नहीं, (तस्मै इन्द्राय) उस परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए, (गायत) हे उपासको! तुम भक्तिभरे गीत गाया करो।