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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 89

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 11
    सूक्त - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९

    बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः। इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरी॑यः कृणोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑: । न॒: । परि॑ । पा॒तु॒ । प॒श्चात् । उ॒त । उत्ऽत॑रस्मात् । अध॑रात् । अ॒घ॒ऽयो: ॥ इन्द्र॑: । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त । म॒ध्य॒त: । न॒:। सखा॑ । सखि॑ऽभ्य: । वरी॑य: । कृ॒णो॒तु॒ ॥८९.११


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिर्नः परि पातु पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः। इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरीयः कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति: । न: । परि । पातु । पश्चात् । उत । उत्ऽतरस्मात् । अधरात् । अघऽयो: ॥ इन्द्र: । पुरस्तात् । उत । मध्यत: । न:। सखा । सखिऽभ्य: । वरीय: । कृणोतु ॥८९.११

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 11

    भाषार्थ -
    (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्ड का पति, तथा (इन्द्रः) सर्वैश्वर्यों का स्वामी परमेश्वर, (परि) सब ओर से (नः) हमारी (पातु) रक्षा करे—अर्थात् (पश्चात्) पश्चिम से, (उत) और (उत्तरस्मात्) उत्तर से, (अधरात्) तथा दक्षिण से, (पुरस्तात्) पूर्व से, (उत) और (मध्यतः) मध्य दिशा से। ताकि (अघायोः) पाप चाहनेवाला कामादि हमारी हत्या न करे। बृहस्पति-इन्द्र (सखा) सखा बन कर, (सखिभ्यः) सखिरूप हम उपासकों के लिए, (वरिवः) सांसारिक धन से श्रेष्ठ आध्यात्मिकधन (कृणोतु) सम्पादित करे।

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