अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 10
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न वा॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑। व॒यं राज॑सु प्रथ॒मा धना॒न्यरि॑ष्टासो वृज॒नीभि॑र्जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठगोभि॑: । त॒रे॒म॒ । अम॑तिम् । दु॒:ऽएवा॑म् । यवे॑न । वा॒ । क्षुध॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । विश्वे॑ ॥ व॒यम् । राज॑ऽसु । प्र॒थ॒मा: । धना॑नि । अरि॑ष्टास: । वृ॒ज॒नीभि॑: । ज॒ये॒म॒ ॥८९.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन वा क्षुधं पुरुहूत विश्वे। वयं राजसु प्रथमा धनान्यरिष्टासो वृजनीभिर्जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठगोभि: । तरेम । अमतिम् । दु:ऽएवाम् । यवेन । वा । क्षुधम् । पुरुऽहूत । विश्वे ॥ वयम् । राजऽसु । प्रथमा: । धनानि । अरिष्टास: । वृजनीभि: । जयेम ॥८९.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(गोभिः) वेदवाणियों की नौका द्वारा (विश्वे) हम सब (दुरेवाम्) दुष्परिणामी (अमतिम्) अज्ञान या अविद्या की नदी से (तरेम) पार हो जाएँ, (वा) तथा हम सब (यवेन) जौ आदि सात्विक अन्नों द्वारा (क्षुधम्) क्षुधा को शान्त करें। (पुरुहूत) हे बहुतों द्वारा, या बहुत नामों द्वारा पुकारे गये परमेश्वर! (वयम्) हम (अरिष्टासः) रोगादि से रहित होकर, (वृजनीभिः) अपनी शक्तियों द्वारा, परिश्रमों द्वारा (राजसु) योगिराजों में स्थित (प्रथमा धनानि) सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक धनों पर (जयेम) विजय पा लें, उन्हें अपना लें।
टिप्पणी -
[“वयं राजसु” का आधिभौतिक अभिप्राय यह है कि राजा लोग “कर” लगाकर प्रजा के श्रेष्ठ धनों के स्वामी बनकर, यदि उन का उपयोग निज भोगों में करते हैं, तो प्रजा को चाहिए कि (वृजनीभिः) सेनाओं में विप्लव तथा विद्रोह जागरित कर, उन धनों पर विजय पाकर, उन का उपयोग प्रजा की भलाई के निमित्त करें। वैदिक समाजवाद का यह एक अत्युत्तम सिद्धान्त है।]