अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 89/ मन्त्र 2
दोहे॑न॒ गामुप॑ शिक्षा॒ सखा॑यं॒ प्र बो॑धय जरितर्जा॒रमिन्द्र॑म्। कोशं॒ न पू॒र्णं वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्ट॒मा च्या॑वय मघ॒देया॑य॒ शूर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठदोहे॑न । गाम् । उप॑ । शि॒क्ष॒ । सखा॑यम् । प्र । बो॒ध॒य॒ । ज॒रि॒त॒: । जा॒रम् । इन्द्र॑म् ॥ कोश॑म् । न । पू॒र्णम् । वसु॑ना । निऽऋ॑ष्टम् । आ । च्य॒व॒य॒ । म॒घ॒ऽदेया॑य । शूर॑म् ॥८९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दोहेन गामुप शिक्षा सखायं प्र बोधय जरितर्जारमिन्द्रम्। कोशं न पूर्णं वसुना न्यृष्टमा च्यावय मघदेयाय शूरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदोहेन । गाम् । उप । शिक्ष । सखायम् । प्र । बोधय । जरित: । जारम् । इन्द्रम् ॥ कोशम् । न । पूर्णम् । वसुना । निऽऋष्टम् । आ । च्यवय । मघऽदेयाय । शूरम् ॥८९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे उपासक! (गाम्) वेदवाणी से (दोहने) दुहे ज्ञान द्वारा तू (सखायम्) अपने साथी उपासक को (उप शिक्ष) उपासना की शिक्षा दिया कर। और (जरितः) हे स्तुति करनेवाले! अपनी स्तुतियों द्वारा, (जारम्) आसुरी-प्रवृत्तियों को जीर्ण-शीर्ण कर देनेवाले (इन्द्रम्) परमेश्वर को, (प्रबोधय) अपनी और सदा जागरूक रखा कर। (न) जैसे (वसुना पूर्णम्) धन से परिपूर्ण (कोशम्) खजाने को (न्यृष्टम्) लुढ़का कर धन प्राप्त कर लिया जाता है, वैसे (शूरम्) दानशूर परमेश्वर को, (मघदेयाय) आध्यात्मिक-धन के देने के लिए, (आ च्यावय) अपनी ओर पूर्णतया प्रेरित कर ले।
टिप्पणी -
[न्यृष्टम्=नि+ऋष् (गतौ)+क्त।]