अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 8
ते स॒त्येन॒ मन॑सा॒ गोप॑तिं॒ गा इ॑या॒नास॑ इषणयन्त धी॒भिः। बृह॒स्पति॑र्मिथोअवद्यपेभि॒रुदु॒स्रिया॑ असृजत स्व॒युग्भिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । स॒त्येन । धी॒भि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इ॒या॒नास: । इ॒ष॒ण॒य॒न्त॒ । धी॒भि: ॥ बृह॒स्पति॑: । मि॒थ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उ॒स्रिया॑: । अ॒सृ॒ज॒त॒ । स्व॒युक्ऽभि॑: ॥९१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
ते सत्येन मनसा गोपतिं गा इयानास इषणयन्त धीभिः। बृहस्पतिर्मिथोअवद्यपेभिरुदुस्रिया असृजत स्वयुग्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठते । सत्येन । धीभि: ॥ मनसा । गोऽपतिम् । गा: । इयानास: । इषणयन्त । धीभि: ॥ बृहस्पति: । मिथ:ऽअवद्यपेभि: । उत् । उस्रिया: । असृजत । स्वयुक्ऽभि: ॥९१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(ते) उन उपासक-सखाओं ने (गाः) वेदवाणियों को प्राप्त करने की (इषणयन्त) इच्छा की, और (सत्येन मनसा) सच्चे मन से की गई (धीभिः) ध्यानविधियों द्वारा उन्होंने (गोपतिम्) वेदवाणियों के पति से (गाः) वेदवाणियों को (इयानासः) प्राप्त किया। और (बृहस्पतिः) महावाणियों के पति ने, (स्वयुग्भिः) अपने में योगयुक्त, तथा (अवद्यपेभिः) अकथनीय आनन्दरस का पान करनेवाले उपासक-सखाओं द्वारा, (उस्रियाः) सूर्यरश्मियों के सदृश ज्ञानप्रकाशवाली वेदवाणियों को (मिथः) एक साथ, (उद् असृजत) प्रकट कर दिया।
टिप्पणी -
[धीभिः—धी का अर्थ प्रज्ञा और कर्म भी है। प्रसङ्गानुसार यहाँ “प्रज्ञा” का अभिप्राय योगविधि द्वारा प्राप्त प्रज्ञा है, और “कर्म” का अभिप्रायः योगोपयोगी कर्मों से है।]