अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
हं॒सैरि॑व॒ सखि॑भि॒र्वाव॑दद्भिरश्म॒न्मया॑नि॒ नह॑ना॒ व्यस्य॑न्। बृह॒स्पति॑रभि॒कनि॑क्रद॒द्गा उ॒त प्रास्तौ॒दुच्च॑ वि॒द्वाँ अ॑गायत् ॥
स्वर सहित पद पाठहंसै:ऽइ॑व । सखि॑ऽभि: । वाव॑दत्ऽभि: । अ॒श्म॒न्ऽमया॑नि । नह॑ना । वि॒ऽअस्य॑न् ॥ बृह॒स्पति॑:। अ॒भि॒ऽकनिक्रद॑त् । गा: । उ॒त । प्र । अ॒स्तौ॒त् । उत् । च॒ । वि॒द्वान् । अ॒गा॒य॒त् ॥९०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हंसैरिव सखिभिर्वावदद्भिरश्मन्मयानि नहना व्यस्यन्। बृहस्पतिरभिकनिक्रदद्गा उत प्रास्तौदुच्च विद्वाँ अगायत् ॥
स्वर रहित पद पाठहंसै:ऽइव । सखिऽभि: । वावदत्ऽभि: । अश्मन्ऽमयानि । नहना । विऽअस्यन् ॥ बृहस्पति:। अभिऽकनिक्रदत् । गा: । उत । प्र । अस्तौत् । उत् । च । विद्वान् । अगायत् ॥९०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अश्मन्मयानि) लोहसमान सुदृढ़ (नहना) राग-द्वेष-अविद्या आदि के बन्धनों को (व्यस्यन्) काटते हुए (विद्वान्-बृहस्पतिः) विज्ञानी ब्रह्माण्डपति ने—(वावदद्भिः) कलरव करते हुए (हंसैः) नीर-क्षीर विवेकी हंसों के सदृश वर्तमान विवेकी-परमहंस (सखिभिः) ऋषि-सखाओं द्वारा, (वावदद्भिः) संवादरूप में, (गाः) वेदवाणियों को (प्रास्तौत्) प्रस्तुत किया। और (अभि) साक्षात् रूप में (कनिक्रदत्) इन्हें वेदवाणियों का उपदेश दिया। (उत च) और तदनन्तर इन ऋषि-सखाओं द्वारा वेदवाणियों का (उद् अगायत्) बृहस्पति ने उच्चस्वर में गान कराया अर्थात् उनके द्वारा प्रजा को वेदवाणियों का मौखिक उपदेश कराया।
टिप्पणी -
[इस विषय का प्रसङ्ग अथर्ववेद में अन्यत्र भी हुआ है। यथा—“यत्र ऋषयः प्रथमजा ऋचः साम यजुः मही” (अथर्ववेद की वाणी), अर्थात् मनुष्य-सृष्टि के आदि में प्रथमोत्पन्न ऋषियों द्वारा परमेश्वर ने ऋग्वेदादि का उपदेश दिया (अथर्व০ १०.७.१४)।]