अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
स ईं॑ स॒त्येभिः॒ सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः। ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्यानट् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ई॒म् । स॒त्येभि॑: । सखि॑ऽभि: । शु॒चत्ऽभि॒: । गोऽधा॑यसम् । वि । ध॒न॒ऽसै: । अ॒द॒र्द॒रित्य॑दर्द: ॥ ब्रह्म॑ण: । पति॑: । वृष॑ऽभि: । व॒राहै॑: । घ॒र्मऽस्वे॑देभि: । द्रवि॑णम् । वि । आ॒न॒ट् ॥९१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं सत्येभिः सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः। ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ईम् । सत्येभि: । सखिऽभि: । शुचत्ऽभि: । गोऽधायसम् । वि । धनऽसै: । अदर्दरित्यदर्द: ॥ ब्रह्मण: । पति: । वृषऽभि: । वराहै: । घर्मऽस्वेदेभि: । द्रविणम् । वि । आनट् ॥९१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(सत्येभिः) सत्य का अनुष्ठान करनेवाले, (शुचद्भिः) पवित्र, (धनसैः) आध्यात्मिक-धनों के प्रदाता, (वृषभिः) उपदेशामृतवर्षी, (वराहैः) श्रेष्ठ-सात्विक आहारोंवाले, (घर्मस्वेदेभिः) यज्ञियकर्मों में अतिपरिश्रमी (सखिभिः) उपासक-सखाओं द्वारा, (ब्रह्मणस्पतिः) वेदपति या ब्रह्माण्डपति ने, (गोधायसम्) पृथिवीवासियों के धारण-पोषण करनेवाले वैदिक-रहस्यों को (वि अदर्दः) विशेषरूप में खोल दिया, और (द्रविणम्) वैदिक-ज्ञानरूपी धन को (व्यानट्) फैलाया है।
टिप्पणी -
[सखिभिः—सखा का अर्थ है “समान ख्यातिवाले, समान धर्मवाले। उपासक जब उपकार, न्याय, पवित्रता, सत्यानुष्ठान, ज्ञानप्रदान, तथा यज्ञीय-कर्मों की दृष्टि से, परमेश्वर के लिए समानधर्मा हो जाते हैं, तब परमेश्वर उन्हें सखारूप जानता है। धनसैः=धन+षणु दाने। वराहैः=श्रेष्ठाहारवद्भिः। अथवा “वराहैः वृषभिः”—मेघों के समान, विना भेदभाव के सर्वत्र उपदेशामृतों की वर्षा करनेवाले। घर्म=यज्ञ (निघं০ ३.१७)।]