अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 10
य॒दा वाज॒मस॑नद्वि॒श्वरू॑प॒मा द्याम॑रुक्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑। बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । वाज॑म् । असनत् । वि॒श्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरु॑क्षत् । उत्ऽत॑राणि । सद्म ॥ बृह॒स्पति॑म् । वृष॑णम् । व॒र्धय॑न्त: । नाना॑ । सन्त: । बिभ्र॑त: । ज्योति॑: । आ॒सा ॥९१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा वाजमसनद्विश्वरूपमा द्यामरुक्षदुत्तराणि सद्म। बृहस्पतिं वृषणं वर्धयन्तो नाना सन्तो बिभ्रतो ज्योतिरासा ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । वाजम् । असनत् । विश्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरुक्षत् । उत्ऽतराणि । सद्म ॥ बृहस्पतिम् । वृषणम् । वर्धयन्त: । नाना । सन्त: । बिभ्रत: । ज्योति: । आसा ॥९१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
परमेश्वर जब (विश्वरूपम्) नानाविध (वाजम्) बल या शक्तियाँ (असनत्) प्रदान करता है, तब उपासक ध्यानबल द्वारा, (द्याम्) मस्तिष्क में (आ अरुक्षत्) आरोहण करता है, अर्थात् शनैः-शनैः निचले चक्रों से आरम्भ कर (उत्तराणि सद्म) ऊपर-ऊपर के चक्रों में आरोहण करता हुआ, मस्तिष्क के चक्र तक आरोहण करता है। और फिर (नाना सन्तः) ये नाना-सन्त अर्थात् योगी (ज्योतिः) परमेश्वरीय ज्योति को (बिभ्रतः) धारण करते हुए, (आसा) अपने मौखिक उपदेशों द्वारा, (वृषणम्) आनन्दरसवर्षी (बृहस्पतिम्) महाब्रह्माण्डपति का (वर्धयन्तः) बढ़-बढ़ कर वर्णन करते हैं।
टिप्पणी -
[द्याम्=“शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत” (यजुः০ ३१.१३), अतः द्यौः=सिर, मस्तिष्क। उत्तराणि सद्म=सुषुम्णानाड़ी में ८ चक्र होते हैं। नीचे गुदा के समीप मूलाधार चक्र होता है, उसके ऊपर की ओर उत्तरोत्तर चक्र हैं—स्वाधिष्ठान, मणिपुर, हृदय-चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञाचक्र, ब्रह्मरन्ध्र, तथा सहस्रार चक्र। योगी निचले-चक्रों में ध्यानाभ्यास द्वारा शनैः-शनैः उत्तरोत्तर चक्रों अर्थात् कमलों को विकसित करता हुआ, मस्तिष्क तक आरोहण करता है। मस्तिष्क में आज्ञा-चक्र तक पहुंच कर मस्तिष्क के ओर उत्तरोत्तर चक्रों में आरोहण करता है। ये उत्तरोत्तर चक्र हैं—ब्रह्मरन्ध्र तथा सहस्रार-चक्र। सहस्रारचक्र में परमेश्वरीय-ज्योति का महाप्रकाश प्रकट होता है।]