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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    यदेन॑सो मा॒तृकृ॑ता॒च्छेषे॑ पि॒तृकृ॑ताच्च॒ यत्। उ॑न्मोचनप्रमोच॒ने उ॒भे वा॒चा व॑दामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । एन॑स: । मा॒तृकृ॑तात् । शेषे॑ । पि॒तृऽकृ॑तात् । च॒ । यत् । उ॒न्मो॒च॒न॒प्र॒मो॒च॒ने इत्यु॑न्मोचनऽप्रमोच॒ने । उ॒भे इति॑ । वा॒चा । व॒दा॒मि॒ । ते॒ ॥३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेनसो मातृकृताच्छेषे पितृकृताच्च यत्। उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एनस: । मातृकृतात् । शेषे । पितृऽकृतात् । च । यत् । उन्मोचनप्रमोचने इत्युन्मोचनऽप्रमोचने । उभे इति । वाचा । वदामि । ते ॥३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (मातृकृतात्) माता द्वारा किये (एनस:) पाप से (यत्) जो रोग प्राप्त कर, (च) और (पितृकृतात् ) पिता द्वारा किये [पाप से ] ( यत् ) जो रोग प्राप्त कर, (शेषे) तू सोया पड़ा है, ( उन्मोचन -प्रमोचने ) उस रोग से उन्मुक्त और प्रमुक्त होना (अर्थात् छुटकारा पाना) (उभे) इन दोनों को (वाचा) वेदवाणी द्वारा (ते) तेरे लिए (वदामि) मैं कहता हूँ।

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