अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 16
इ॒यम॒न्तर्व॑दति जि॒ह्वा ब॒द्धा प॑निष्प॒दा। त्वया॒ यक्ष्मं निर॑वोचं श॒तं रोपी॑श्च त॒क्मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । अ॒न्त: । व॒द॒ति॒ । जि॒ह्वा । ब॒ध्दा । प॒नि॒ष्प॒दा ।त्वया॑ । यक्ष्म॑म् । नि: । अ॒वो॒च॒म् । श॒तम् । रोपी॑: । च॒ । त॒क्मन॑: ॥३०.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमन्तर्वदति जिह्वा बद्धा पनिष्पदा। त्वया यक्ष्मं निरवोचं शतं रोपीश्च तक्मनः ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । अन्त: । वदति । जिह्वा । बध्दा । पनिष्पदा ।त्वया । यक्ष्मम् । नि: । अवोचम् । शतम् । रोपी: । च । तक्मन: ॥३०.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(अन्तः बद्धा) मुख के भीतर बंधी हुई (इयं जिह्वा) यह जीभ (पनिष्पदा) स्पन्दित हुई (वदति) बोलती है । (त्वया) हे रुग्ण ! तेरे साथ बँधी [ इस जिह्वा से] (यक्ष्मम्) यक्ष्मा रोग को (निर् अवोचम्) मैंने निज प्रबल वाणी द्वारा निकाल दिया है, (च) और ( तक्मनः) बखार की ( शतम्) सौ (रोपी:) पीड़ाओं को [भी निकाल दिया है।]
टिप्पणी -
[मन्त्र में 'जिह्वा-सम्बन्धी-यक्ष्म' का वर्णन हुआ है। यक्ष्मा के कारण जिह्वा स्पन्दित हुई के सदृश बोलती है, स्पष्टोच्चारण नहीं कर सकती।]