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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    यद्दु॒द्रोहि॑थ शेपि॒षे स्त्रि॒यै पुं॒से अचि॑त्त्या। उ॑न्मोचनप्रमोच॒ने उ॒भे वा॒चा व॑दामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दु॒द्रोहि॑थ । शे॒पि॒षे । स्त्रि॒यै । पु॒से । अचि॑त्त्या । उ॒न्मो॒च॒न॒प्र॒मो॒च॒ने इत्यु॑न्मोचनऽप्रमोच॒ने । उ॒भे इति॑ । वा॒चा । व॒दा॒मि॒ । ते॒ ॥३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दुद्रोहिथ शेपिषे स्त्रियै पुंसे अचित्त्या। उन्मोचनप्रमोचने उभे वाचा वदामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दुद्रोहिथ । शेपिषे । स्त्रियै । पुसे । अचित्त्या । उन्मोचनप्रमोचने इत्युन्मोचनऽप्रमोचने । उभे इति । वाचा । वदामि । ते ॥३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (स्त्रियै) किसी स्त्री के लिए, ( पुंसे ) किसी पुरुष के लिए, ( अचित्त्या ) अज्ञान से (यत्) जो (दुद्रोहिथ) तूने द्रोह किया है और (शेपिष) शाप दिया है, [तो तज्जन्य पाप से ] (उन्मोचनप्रमोचने) उससे उन्मुक्त और प्रमुक्त होना ( उभे) इन दोनों को (वाचा) वेदवाणी द्वारा (ते) तेरे लिए ( वदामि ) मैं कहता हूँ।

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