अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 11
अ॒यम॒ग्निरु॑प॒सद्य॑ इ॒ह सूर्य॒ उदे॑तु ते। उ॒देहि॑ मृ॒त्योर्ग॑म्भी॒रात्कृ॒ष्णाच्चि॒त्तम॑स॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्नि: । उ॒प॒ऽसद्य॑: । इ॒ह । सूर्य॑: । उत् । ए॒तु॒ । ते॒ । उ॒त्ऽएहि॑ । मृ॒त्यो: । ग॒म्भी॒रात् । कृ॒ष्णात् । चि॒त् । तम॑स: । परि॑ ॥३०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निरुपसद्य इह सूर्य उदेतु ते। उदेहि मृत्योर्गम्भीरात्कृष्णाच्चित्तमसस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्नि: । उपऽसद्य: । इह । सूर्य: । उत् । एतु । ते । उत्ऽएहि । मृत्यो: । गम्भीरात् । कृष्णात् । चित् । तमस: । परि ॥३०.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(अयम् अग्निः) यह यज्ञियाग्नि (उपसद्यः) समीप बैठने योग्य अर्थात् सेवनीय है, (इह ते ) तेरे इस घर में (सूर्यः उदेतु) सूर्य उदित हो, अर्थात् उदीयमान सूर्य की रश्मियाँ आएँ। (गम्भीरात् मृत्योः) गम्भीर मृत्यु से (उदेति) तू उदित हो, (कृष्णात् चित् ) जैसे कि काले ( तमस: परि ) अन्धकार अर्थात् रात्री से सूर्य उदित होता है ।
टिप्पणी -
[जैसे सूर्य काली-रात्रि के तमस से उदित होता है, वैसे तू मृत्यु रूपी काले तमस् से उदित हो । इसके लिए दो उपाय हैं, यज्ञियाग्नि का सेवन और उदीयमान सूर्य की रश्मियों का घर में प्रवेश तथा सेवन।]