अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तद्ब्रह्म॑ च॒ तप॑श्च सप्तऋ॒षय॒ उप॑ जीवन्ति ब्रह्मवर्च॒स्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । ब्रह्म॑ । च॒ । तप॑: । च॒ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽव॒र्च॒सी । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्ब्रह्म च तपश्च सप्तऋषय उप जीवन्ति ब्रह्मवर्चस्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । ब्रह्म । च । तप: । च । सप्तऽऋषय: । उप । जीवन्ति । ब्रह्मऽवर्चसी । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(तत्) उस (ब्रह्म च, तपः च) ब्रह्म और तप के (उप) आश्रय (सप्त ऋषयः) सात ऋषि (जीवन्ति) जीवित रहते हैं, (यः) जो (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता है, वह (ब्रह्मवर्चसी) बह्मवर्चसवाला और (उपजीवनीयः) अन्यों के जीवन का आश्रय (भवति) हो जाता है।
टिप्पणी -
[ब्रह्मवर्चसी, अन्यों को ब्रह्मज्ञान और तपोमय जीवन का सदुपदेश दे कर उनके ब्राह्मजीवन का आश्रय बन जाता है। सप्त ऋषि शरीरस्थ भी हैं, पांच ज्ञानेन्द्रियां, मन और बुद्धि, इन्हें भी ब्राह्मजीवन और तपोमय जीवन में ढालने का निर्देश मन्त्र द्वारा हुआ है]।