अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदा साम्नी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा पि॒तॄनाग॑च्छ॒त्तां पि॒तर॒ उपा॑ह्वयन्त॒ स्वध॒ एहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । पि॒तृन् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । पि॒तर॑: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । स्वधे॑ । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा पितॄनागच्छत्तां पितर उपाह्वयन्त स्वध एहीति।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । पितृन् । आ । अगच्छत् । ताम् । पितर: । उप । अह्वयन्त । स्वधे । आ । इहि । इति ॥१३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(सा) वह विराट् (उदक्रामत) उत्क्रान्त हुई, समुन्नत हुई, (सा) वह (पितॄन्) पितरों को (आगच्छत्) प्राप्त हुई (ताम्) उस को (पितरः) पितरों ने (उप अह्वयन्त) अपने समीप बुलाया कि (स्वधे) "हे स्वधा ! (एहि) आ" (इति) इस प्रकार।
टिप्पणी -
[पितरः हैं सभा और समिति के सदस्य। सभा है लोकसभा, और समिति है राजसभा (अथर्व० ८।१०।८-११)। सभा और समिति के संयुक्त अधिवेशन में स्थित सभ्यों और सामित्यों को "पितरः" कहा है। यथा "सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरौ संविदाने। येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः संगतेषु ॥ (अथर्व० ७।१३।(१२)।१) मन्त्र के चतुर्थ पाद में "पितरः" का कथन हुआ है। स्वधा= स्व + धा (धारण-पोषण), अर्थात् स्वयम् अपने-आप का धारण-पोषण करना, इस के लिये पराश्रित या पराधीन न होना]।