अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - साम्न्युष्णिक्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तां द्विमू॑र्धा॒र्त्व्योधो॒क्तां मा॒यामे॒वाधो॑क्।
स्वर सहित पद पाठताम् । द्विऽमू॑र्धा । अ॒र्त्व्य᳡: । अ॒धो॒क् । ताम् । मा॒याम् । ए॒व । अ॒धो॒क् ॥१३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तां द्विमूर्धार्त्व्योधोक्तां मायामेवाधोक्।
स्वर रहित पद पाठताम् । द्विऽमूर्धा । अर्त्व्य: । अधोक् । ताम् । मायाम् । एव । अधोक् ॥१३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ताम्) उस विराट् को (द्विमूर्धा) दो सिरों वाले (अर्त्व्यः) ऋतुओं के पुत्र ने (अधोक्) दुहा (ताम्) उस से (मायाम् एव) माया को ही (अधोक्) दुहा है।
टिप्पणी -
[विरोचन को दों सिरों वाला कहा है, वह एक सिर से तो सोचता है, और दूसरे सिर से वाणी बोलता है, अर्थात् मन में कुछ और वाणी में कुछ। "मनस्यन्यत्, वचस्यन्यत्" का वह अनुयायी है। वह ऋतुओं का मानो पुत्र हैं, ऋतुओं के सदृश परिवर्तनशील है, अस्थिरमति है। उसने विराट्-गौ से माया अर्थात् प्राकृतिक धन-सम्पत् रूपी दूध को ही दोहा]।