अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदा साम्नी जगती
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सासु॑रा॒नाग॑च्छ॒त्तामसु॑रा॒ उपा॑ह्वयन्त॒ माय॒ एहीति॑।
स्वर सहित पद पाठसा ।उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । असु॑रान् । आ॒ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । असु॑रा: । उप॑ । अ॒ह्व॒य॒न्त॒ । मयि॑ । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥१३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सासुरानागच्छत्तामसुरा उपाह्वयन्त माय एहीति।
स्वर रहित पद पाठसा ।उत् । अक्रामत् । सा । असुरान् । आ । अगच्छत् । ताम् । असुरा: । उप । अह्वयन्त । मयि । आ । इहि । इति ॥१३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 4;
मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सा) वह विराट् (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई (सा) वह (असुरान्) असुरों को (आ गच्छत्) प्राप्त हुई, (ताम्) उस विराट् को (असुराः) असुरों ने (उपाह्वयन्त) अपने समीप बुलाया कि (माये) हे माया (एहि) आ, (इति) इस प्रकार।
टिप्पणी -
[असुर हैं प्राण१ के और धन१ के अनुयायी, जो कि निज प्राणों के पोषण और धनार्जन को जीवन का ध्येय समझते हैं। उन्होंने विराट् को अपने पास बुलाया, और वह मायारूप में उनके पास आई। माया है प्रकृति "मायां तु प्रकृति विद्यात्" (श्वेता० अ० ४। खं० १०)। प्रकृति के उपासकों को "असुराः" कहा है, ये प्राकृतिक उन्नति को निज ध्येय जानते हैं। आसुर-जीवन के सम्बन्ध में छान्दोग्य उप० (अध्याय ८। खण्ड ७-१२) द्रष्टव्य है।] [१. असुरः= प्राणवान् "अपि वा असुरिति प्राणनाम" (निरुक्त ३।२।८)। तथा "असुरत्वमादिलुप्तम्" (निरुक्त १०।३।३४)। असुरः= वसुर धनरतः। वसुर के आदिभूत "व्" का लोप।]