अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिपदा पुरोऽभिकृतिः ककुम्मतीगर्भापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
इन्द्र॒स्यौज॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ सह॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ बलं॒ स्थेन्द्र॑स्य वी॒र्यं स्थेन्द्र॑स्य नृ॒म्णं स्थ॑। जि॒ष्णवे॒ योगा॑य ब्रह्मयो॒गैर्वो॑ युनज्मि ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । ओज॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । सह॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । बल॑म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । वी॒र्य᳡म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । नृ॒म्णम् । स्थ॒ । जि॒ष्णवे॑ । योगा॑य । ब्र॒ह्म॒ऽयो॒गै: । व॒: । यु॒न॒ज्मि॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय ब्रह्मयोगैर्वो युनज्मि ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । ओज: । स्थ । इन्द्रस्य । सह: । स्थ । इन्द्रस्य । बलम् । स्थ । इन्द्रस्य । वीर्यम् । स्थ । इन्द्रस्य । नृम्णम् । स्थ । जिष्णवे । योगाय । ब्रह्मऽयोगै: । व: । युनज्मि ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
Subject - वैदिक जीवन पद्धति
Word Meaning -
ब्रह्मयोगैर्वो ब्रह्म ज्ञान – वेद ज्ञान से
( इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया, समाज के नेता सब जनों के बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति शक्ति सम्पन्न होने के मार्ग दर्शन के लिए (ब्रह्मयोगैर्वो) ब्रह्म ज्ञान – वेद ज्ञान के द्वारा (जिष्णवे योगाय युनज्मि) जितेंद्रिय हो कर संसार में विजय प्राप्ति के उद्देश्य से जोड़ता हूं |
Tika / Tippani -
हिंदु आचार संहिता वेदों के अनुसार जिस ने भारत को विश्वगुरु का पद दिया |
भारतवर्ष का वैभव अथर्व10.5
हिंदु आचार संहिता वेदों के अनुसार जिस ने भारत को विश्वगुरु का पद दिया |
India’s Glory AV10.5
Glory of India is due to the geographical location of this land & being blessed by wisdom of Vedas and Cow based society.
AV 10.5 ऋषि: - सिंधुद्वीप:, देवता: Vijaypraapti विजयप्राप्ति अर्थात सिंधु द्वीप – आर्यावर्त Indogangetic plain की समृद्धि सम्पन्नता की ख्याति से आर्यावर्त के विस्तार से विश्व विजय का मूल मंत्र | Action Oriented Society:
इन्द्र - संसार चक्र के कल्याण मार्ग मे आने वाली सब बाधाओं को नष्ट कर के उत्तम व्यवस्था स्थापित करने वाली वह शक्ति है जो दैविक अमूर्त में और मर्त्य रूप दोनों मे प्रकट होती है.
ऋग्वेद 5.30.5 के ‘अतिश्चिदिन्द्रदभयन्त देवा:’ पर स्वामी समर्पणा नन्द जी ऋग्वेद मण्डल मणि सूत्र में लिखते हैं
“ ब्रह्माण्ड में परमात्मा , सौर चक्र में सूर्य, राष्ट्र में (क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले) राजा , शरीर में जीवात्मा और परिवार में यजमान, सब अपने अपने क्षेत्र में इन्द्र हैं ”
ऋषि: - सिन्धुद्वीप:
हिंदु -सिंधु और गङ्गा के मध्य के प्रदेश Indigangetic Plain को सिंधु द्वीप के नाम से जाना जाता था जो समृद्धि से भरपूर होने पर भारतवर्ष कहलाने के बाद विस्तार होने पर आर्यवर्त के नाम से प्रख्यात हुआ | उच्चारण में स का ह बन जाना आज भी देखा जाता है , जैसे असमिया में स का उच्चारण ह से होता है इसी प्रकार सिंधु का हिंदु बन गया |
भारत - वेदों में सब प्रकार से सम्पन्न सब अन्न धान्य से भरपूर समृद्ध प्रदेश को भारत की संज्ञा दी गई है |
आर्यावर्त – विस्तार होने पर इतिहास के आधार पर यह समृद्ध जीवन व्यवस्था सुदूर प्रदेश पूर्व में इंडोनेशिया, बाली, जावा, सुमात्रा, कम्बोजिया , श्याम देश इत्यादि से पश्चिम में अफग़ानिस्तान तक फैल गई थी |
भारत वर्ष के विषय में –विश्व में केवल यही ऐसा भूखंड है जहां प्रकृति की सब 6 ऋतु (जिन का वेदों में स्पष्ट विवरण मिलता है) पाई जाती है. यही वह भू खंड है जिस पर वनस्पति अन्न इत्यादि की समस्त विविधता पाकृतिक रूप से बिना कृत्रिम प्रयासों के उपलब्ध होती है | बारह महीने खेती हो सकती है, सारे वर्ष जलवायु सब प्राणियों के जीवन के लिए अनुकूल रहता है | ऐसा क्षेत्र भौतिक दृष्टि से उपयुक्त प्राकृतिक सुविधाओं और प्रजा के कर्मठ वैदिक आचरण के कारण अधिक सम्पन्न और शांतिप्रिय पाया जाता है | ऐसी पुण्य भूमि में वेद ज्ञान का अवतरण और उस पर आचरण करते हुए गौमाता के आशीर्वाद से ही प्राचीन आर्यवर्त देश को विश्व गुरु और सौने की चिड़िया होने का गौरव प्राप्त हो सका था | आर्यवर्त की विश्व विजय प्राप्ति का रहस्य इस अथर्व वेद सूक्त का विषय है | इस सूक्त में मातृभूमि सिंधुद्वीप राष्ट्र में आचरण का सब जनों राजा और प्रजा को उपदेश दिया गया है |
Action Oriented Society:
Indra इन्द्र - संसार चक्र के कल्याण मार्ग मे आने वाली सब बाधाओं को नष्ट कर के उत्तम व्यवस्था स्थापित करने वाली वह शक्ति है जो दैविक अमूर्त में और मर्त्य रूप दोनों मे प्रकट होती है.
ऋग्वेद 5.30.5 के ‘अतिश्चिदिन्द्रदभयन्त देवा:’ पर स्वामी समर्पणा नन्द जी ऋग्वेद मण्डल मणि सूत्र में लिखते हैं
“ ब्रह्माण्ड में परमात्मा , सौर चक्र में सूर्य, राष्ट्र में (क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले) राजा , शरीर में जीवात्मा और परिवार में यजमान, सब अपने अपने क्षेत्र में इन्द्र हैं ”
इस अथर्व वेद 10.5 सूक्त के प्रथम 6 मंत्रों , अथर्व 10.5.1 से अथर्व 10.5.6 मंत्रों की ध्रुव पंक्ति है ;
“ इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय युनज्मि” ||
(जिष्णवे योगाय, इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) अपने और संसार पर विजय के लिए , ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया , समाज के नेता सब जनों को, बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति सम्पन्न बन कर विजय प्राप्ति के लिए पारस्परिक सहयोग के लिए के लिए (युनज्मि) संगठित करता हूं जोड़ता हूं |