अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑ । स॒वि॒तु: । भा॒ग: । स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य सवितुर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य । सवितु: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
Subject - सर्व हितकारी उत्पादन Creative Productivity
Word Meaning -
(देवस्य सवितुर्भाग) दिव्य जनों की सर्वहितकारी नवीन उत्पादन करने (केवल व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित पर्यावरण और मानव समाज को दूषित करने वाले हानिकारक निर्माण न करने ) की शक्ति द्वारा सब जीव जंतुओं और मनुष्यों के स्वाथ्य और मानसिकता द्वारा जलों-तरल पदार्थों- भौतिक जल वनस्पतिओं के रस और मानव शरीर का संचारण करने वाले रक्त रेतस वीर्यादि रस में संसारिक सम्पन्नता,दीप्ति और वर्चस्व देने वाले प्रजा के पालन करने वाले ईश्वर के दैवीय गुण-,राजा,अग्रज और प्रजा सब जन जितेंद्रिय बन कर जीवन में विजय प्राप्त करें|