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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - सिनीवाली देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    10

    सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑।जु॒षस्व॑ ह॑व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सिनी॑वालि। पृथु॑ष्टुके। पृथु॑स्तुक॒ इति॒ पृथु॑ऽस्तुके। या। दे॒वाना॑म्। असि॑। स्वसा॑ ॥ जु॒षस्व॑। ह॒व्यम्। आहु॑त॒मित्याऽहु॑तम्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दे॒वि॒। दि॒दि॒ड्ढि॒। नः॒ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा । जुषस्व हव्यमाहुतम्प्रजान्देवि दिदिड्ढि नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सिनीवालि। पृथुष्टके। पृथुस्तुक इति पृथुऽस्तुके। या। देवानाम्। असि। स्वसा॥ जुषस्व। हव्यम्। आहुतमित्याऽहुतम्। प्रजामिति प्रऽजाम्। देवि। दिदिड्ढि। नः॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    हे (सिनीवालि) प्रेमयुक्त बल करनेहारी (पृथुष्टुके) जिसकी विस्तृत स्तुति शिर के बाल वा कामना हो, ऐसी (देवि) विदुषि कुमारी (या) जो तू (देवानाम्) विद्वानों की (स्वसा) बहिन (असि) है, सो (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य (आहुतम्) अच्छे प्रकार वर दीक्षादि कर्म्मों से स्वीकार किये पति का (जुषस्व) सेवन कर और (नः) हमारे लिये (प्रजाम्) सुन्दर सन्तानरूप प्रजा को (दिदिड्ढि) दे॥१०॥

    भावार्थ - हे कुमारियो! तुम ब्रह्मचर्य्य आश्रम के साथ समस्त विद्याओं को प्राप्त हो, युवति हो के अपने को अभीष्ट स्वयं परीक्षा किये वरने योग्य पतियों को आप वरो, उन पतियों के साथ आनन्द कर प्रजा, पुत्रादि को उत्पन्न किया करो॥१०॥

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