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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 19
    ऋषिः - देवश्रवा देववातश्च भारतावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    न ते॑ दू॒रे प॑र॒मा चि॒द् रजा॒स्या तु प्र या॑हि हरिवो॒ हरि॑भ्याम्।स्थि॒राय॒ वृष्णे॒ सव॑ना कृ॒तेमा यु॒क्ता ग्रावा॑णः समिधा॒नेऽअ॒ग्नौ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। ते॒। दू॒रे। प॒र॒मा। चि॒त्। रजा॑सि। आ। तु। प्र। या॒हि॒। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरि॒ऽवः। हरि॑भ्या॒मिति॒ हरि॑ऽभ्याम् ॥ स्थि॒राय॑। वृष्णे॑। सव॑ना। कृ॒ता। इ॒मा। यु॒क्ता। ग्रावा॑णः स॒मि॒धा॒न इति॑ सम्ऽइधा॒ने। अ॒ग्नौ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ते दूरे परमा चिद्रजाँस्यस्या तु प्र याहि हरिवो हरिभ्याम् । स्थिराय वृष्णे सवना कृतेमा युक्ता ग्रावाणः समिधानेऽअग्नौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न। ते। दूरे। परमा। चित्। रजासि। आ। तु। प्र। याहि। हरिव इति हरिऽवः। हरिभ्यामिति हरिऽभ्याम्॥ स्थिराय। वृष्णे। सवना। कृता। इमा। युक्ता। ग्रावाणः समिधान इति सम्ऽइधाने। अग्नौ॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    हे (हरिवः) प्रशस्त घोड़ों वाले राजन्! जैसे (समिधाने) प्रदीप्त किये हुए (अग्नौ) अग्नि में (इमा) ये (सवना) प्रातःसवनादि यज्ञकर्म (कृता) किये जाते हैं, (तु) इसी हेतु से (ग्रावाणः) गर्जना करनेवाले मेघ (युक्ताः) इकट्ठे होके आते हैं, वैसे (स्थिराय) दृढ़ (वृष्णे) सुखदायी विद्यादि पदार्थ के लिये (हरिभ्याम्) धारण और आकर्षण के वेगरूप गुणों से युक्त घोड़ों वा जल और अग्नि से (आ, प्र, याहि) अच्छे प्रकार आइये। इस प्रकार करने से (परमा) दूरस्थ (चित्) भी (रजांसि) स्थान (ते) आपके (दूरे) दूर (न) नहीं होते हैं॥१९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् लोगो! जैसे अग्नि से उत्पन्न किये वर्षा के मेघ पृथिवी के समीप होते आकर्षण से दूर भी जाते हैं, वैसे अग्नि के यानों से गमन करने में कोई देश दूर नहीं होता। इस प्रकार पुरुषार्थ करके सम्पूर्ण ऐश्वर्यो को उत्पन्न करो॥१९॥

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