यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 18
ऋषिः - देवश्रवा देववातश्च भारतावृषी
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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इ॒च्छन्ति॑ त्वा सो॒म्यासः॒ सखा॑यः सु॒न्वन्ति॒ सोमं॒ दध॑ति॒ प्रया॑सि।तिति॑क्षन्तेऽअ॒भिश॑स्तिं॒ जना॑ना॒मिन्द्र॒ त्वदा कश्च॒न हि प्र॑के॒तः॥१८॥
स्वर सहित पद पाठइ॒च्छन्ति॑। त्वा॒। सो॒म्यासः॑। सखा॑यः। सु॒न्वन्ति॑। सोम॑म्। दध॑ति। प्रया॑सि ॥ तिति॑क्षन्ते॑। अ॒भिश॑स्ति॒मित्य॒भिऽश॑स्तिम्। जना॑नाम्। इन्द्र॑। त्वत्। आ। कः। च॒न। हि। प्र॒के॒त इति॑ प्रऽके॒तः ॥१८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छन्ति त्वा सोम्यासः सखायः सुन्वन्ति सोमन्दधति प्रयाँसि । तितिक्षन्तेऽअभिशस्तिञ्जनानामिन्द्र त्वदा कश्चन हि प्रकेतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
इच्छन्ति। त्वा। सोम्यासः। सखायः। सुन्वन्ति। सोमम्। दधति। प्रयासि॥ तितिक्षन्ते। अभिशस्तिमित्यभिऽशस्तिम्। जनानाम्। इन्द्र। त्वत्। आ। कः। चन। हि। प्रकेत इति प्रऽकेतः॥१८॥
विषय - अब आप्त का लक्षण कहते हैं॥
पदार्थ -
हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष राजन्! जो (सोम्यासः) ऐश्वर्य होने में उत्तम स्वभाववाले (सखायः) मित्र हुए (सोमम्) ऐश्वर्यादि को (सुन्वन्ति) सिद्ध करते (प्रयांसि) चाहने योग्य विज्ञानादि गुणों को (दधति) धारण करते और (जनानाम्) मनुष्यों के (अभिशस्तिम्) दुर्वचन, वाद-विवाद को (आ, तितिक्षन्ते) अच्छे प्रकार सहते हैं, उनका आप निरन्तर सत्कार कीजिये। (हि) जिस कारण (त्वत्) आपसे (प्रकेतः) उत्तम बुद्धिमान् (कः,चन) कोई भी नहीं, इससे (त्वा) आपको सब लोग (इच्छन्ति) चाहते हैं॥१८॥
भावार्थ - जो मनुष्य इस संसार में निन्दा-स्तुति और हानि-लाभादि को सहने वाले पुरुषार्थी सबके साथ मित्रता का आचरण करते हुए आप्त हों, वे सबको सेवने और सत्कार करने योग्य हैं तथा वे ही सबके अध्यापक और उपदेशक होवें॥१८॥
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