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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 54
    ऋषिः - कूर्म गार्त्समद ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒मा गिर॑ऽआदि॒त्येभ्यो॑ घृ॒तस्नूः॑ स॒नाद्राज॑भ्यो जु॒ह्वड्टा जुहोमि।शृ॒णोतु॑ मि॒त्रोऽअ॑र्य॒मा भगो॑ नस्तुविजा॒तो वरु॑णो॒ दक्षो॒ऽअꣳशः॑॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः। गिरः॑। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। घृ॒तस्नू॒रिति॑ घृ॒त्ऽस्नूः॑। स॒नात्। राज॑भ्य॒ इति॒ राज॑ऽभ्यः। जु॒ह्वा᳖। जु॒हो॒मि॒ ॥ शृ॒णो॒तु॑। मि॒त्रः। अ॒र्य्य॒मा। भगः॑। नः॒। तु॒वि॒जा॒त इति॑ तुविऽजा॒तः। वरु॑णः। दक्षः॑। अꣳशः॑ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा गिरऽआदित्येभ्यो घृतस्नूः सनाद्राजभ्यो जुह्वा जुहोमि । शृणोतु मित्रोऽअर्यमा भगो नस्तुविजातो वरुणो दक्षो अँशः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः। गिरः। आदित्येभ्यः। घृतस्नूरिति घृत्ऽस्नूः। सनात्। राजभ्य इति राजऽभ्यः। जुह्वाड्ट। जुहोमि॥ शृणोतु। मित्रः। अर्य्यमा। भगः। नः। तुविजात इति तुविऽजातः। वरुणः। दक्षः। अꣳशः॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 54
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    पदार्थ -
    मैं (आदित्येभ्यः) तेजस्वी (राजभ्यः) राजाओं से जिन (इमाः) इन सत्य (गिरः) वाणियों को (जुह्वा) ग्रहण के साधन से (सनात्) नित्य (जुहोमि) ग्रहण स्वीकार करता हूं, उन (घृतस्नूः) जल के तुल्य अच्छे व्यवहार को शोधनेवाली (नः) हम लोगों की वाणियों को (मित्रः) मित्र (अर्य्यमा) न्यायकारी (भगः) ऐश्वर्यवान् (तुविजातः) बहुतों में प्रसिद्ध (दक्षः) चतुर (अंशः) विभागकर्त्ता और (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (शृणोतु) सुने॥५४॥

    भावार्थ - विद्यार्थी लोगों ने आचार्य्यों से जिन सुशिक्षित वाणियों को ग्रहण किया, उनको अन्य आप्त लोग सुन और अच्छे प्रकार परीक्षा करके शिक्षा करें॥५४॥

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