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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 50
    ऋषिः - दक्ष ऋषिः देवता - हिरण्यन्तेजो देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    आ॒युष्यं वर्च्च॒स्यꣳ रा॒यस्पोष॒मौद्भि॑दम्।इ॒दꣳ हिर॑ण्यं॒ वर्च्च॑स्व॒ज्जैत्रा॒यावि॑शतादु॒ माम्॥५०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒यु॒ष्य᳖म्। व॒र्च॒स्य᳖म्। रा॒यः। पोष॑म्। औद्भि॑दम् ॥ इ॒दम्। हिर॑ण्यम्। वर्च॑स्वत्। जैत्रा॑य। आ। वि॒श॒ता॒त्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। माम् ॥५० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयुष्यँवर्चस्यँ रायस्पोषऔद्भिदम् । इदँ हिरण्यँवर्चस्वज्जैत्राया विशतादु माम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आयुष्यम्। वर्चस्यम्। रायः। पोषम्। औद्भिदम्॥ इदम्। हिरण्यम्। वर्चस्वत्। जैत्राय। आ। विशतात्। ऊँऽइत्यूँ। माम्॥५०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 50
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (औद्भिदम्) दुःखों के नाशक (आयुष्यम्) जीवन के लिये हितकारी (वर्चस्यम्) अध्ययन के लिये उपयोगी (रायः, पोषम्) धन की पुष्टि करने हारे (वर्चस्वत्) प्रशस्त अन्नों के हेतु (हिरण्यम्) तेजःस्वरूप सुवर्णादि ऐश्वर्य (जैत्राय) जय होने के लिये (माम्) मुझको (आ, विशतात्) आवेश करे अर्थात् मेरे निकट स्थिर रहे, वह (उ) तुम लोगों के निकट भी स्थिर होवे॥५०॥

    भावार्थ - जो मनुष्य अपने तुल्य सबको जानते और विद्वानों के साथ विचार कर सत्यासत्य का निर्णय करते हैं, वे दीर्घ अवस्था, पूर्ण विद्याओं, समग्र ऐश्वर्य और विजय को प्राप्त होते हैं॥५०॥

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