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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 57
    ऋषिः - कण्व ऋषिः देवता - ब्रह्मणस्पतिर्देवता छन्दः - विराट् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    प्र नू॒नं ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्मन्त्रं॑ वदत्युक्थ्यम्।यस्मि॒न्निन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॑र्य॒मा दे॒वाऽओका॑सि चक्रि॒रे॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। नू॒नम्। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। मन्त्र॑म्। व॒द॒ति॒। उ॒क्थ्य᳖म् ॥ यस्मि॑न्। इन्द्रः॑। वरु॑णः। मित्रः॒। अ॒र्य्य॒मा। दे॒वाः। ओका॑सि। च॒क्रि॒रे॒ ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रनूनम्ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रँवदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणोऽमित्रो अर्यमा देवा ओकाँसि चक्रिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। नूनम्। ब्रह्मणः। पतिः। मन्त्रम्। वदति। उक्थ्यम्॥ यस्मिन्। इन्द्रः। वरुणः। मित्रः। अर्य्यमा। देवाः। ओकासि। चक्रिरे॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 57
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (यस्मिन्) जिस परमात्मा में (इन्द्रः) बिजुली वा सूर्य्य (वरुणः) जल वा चन्द्रमा (मित्रः) प्राण वा अन्य अपानादि वायु (अर्य्यमा) सूत्रात्मा वायु (देवाः) ये सब उत्तम गुणवाले (ओकांसि) निवासों को (चक्रिरे) किये हुए हैं, वह (ब्रह्मणः) वेदविद्या का (पतिः) रक्षक जगदीश्वर (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय पदार्थों में श्रेष्ठ (मन्त्रम्) वेदरूप मन्त्रभाग को (नूनम्) निश्चय कर (प्र, वदति) अच्छे प्रकार कहता है, ऐसा तुम जानो॥५७॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जिस परमात्मा में कार्यकारणरूप सब जगत् और जीव वसते हैं तथा जिसने सब जीवों के हितसाधक वेद का उपदेश किया है, उसी की तुम लोग भक्ति, सेवा, उपासना करो॥५७॥

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