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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 43
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृद् गायत्री स्वरः - षड्जः
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    त्रीणि॑ प॒दा विच॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पाऽअदा॑भ्यः।अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑। प॒दा। वि। च॒क्र॒मे॒। विष्णुः॑। गो॒पाः। अदा॑भ्यः ॥ अतः॑। धर्मा॑णि। धा॒रय॑न् ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपाऽअदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। पदा। वि। चक्रमे। विष्णुः। गोपाः। अदाभ्यः॥ अतः। धर्माणि। धारयन॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (अदाभ्यः) अहिंसा धर्मवाला होने से दयालु (गोपाः) रक्षक (विष्णुः) चराचर जगत् में व्याप्त परमेश्वर (धर्माणि) पुण्यरूप कर्मों का धारक पृथिव्यादि को (धारयन्) धारण करता हुआ (अतः) इस कारण से (त्रीणि) तीन (पदा) जानने वा प्राप्त होने योग्य कारण, सूक्ष्म और स्थूलरूप जगत् का (वि, चक्रमे) आक्रमण करता है, वही हम लोगों का पूजनीय है॥४३॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जिस परमेश्वर ने भूमि, अन्तरिक्ष और सूर्य्यरूप करके तीन प्रकार के जगत् को बनाया, सबको धारण किया और रक्षित किया है, वही उपासना के योग्य इष्टदेव है॥४३॥

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