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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - अन्नं देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    पि॒तुं नु स्तो॑षं म॒हो ध॒र्माणं॒ तवि॑षीम्।यस्य॑ त्रि॒तो व्योज॑सा वृ॒त्रं विप॑र्वम॒र्द्दय॑त्॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पितुम्। नु। स्तो॒ष॒म्। म॒हः। धर्मा॑ण॑म्। तवि॑षीम् ॥ यस्य॑। त्रि॒तः। वि। ओज॑सा। वृ॒त्रम्। विप॑र्व॒मिति॒ विऽप॑र्वम्। अ॒र्दय॑त् ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुन्नु स्तोषम्महो धर्माणन्तविषीम् । यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रँ विपर्वमर्दयत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पितुम्। नु। स्तोषम्। महः। धर्माणम्। तविषीम्॥ यस्य। त्रितः। वि। ओजसा। वृत्रम्। विपर्वमिति विऽपर्वम्। अर्दयत्॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 7
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    पदार्थ -
    मैं (यस्य) जिसके (पितुम्) अन्न (महः) महान् (धर्माणम्) पक्षपातरहित न्यायाचरणरूप धर्म और (तविषीम्) बलयुक्त सेना की (नु) शीघ्र (स्तोषम्) स्तुति करता हूं, वह राजपुरुष (त्रितः) तीनों काल में जैसे सूर्य्य (ओजसा) जल के साथ वर्त्तमान (विपर्वम्) जिसकी बादल रूप गाँठ भिन्न-भिन्न हों, उस (वृत्रम्) मेघ को (वि, अर्दयत्) विशेष कर नष्ट करता है, वैसे शत्रुओं के जीतने को समर्थ होता है॥७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिसने सत्य-धर्म, बलवती सेना और पुष्कल अन्नादि सामग्री धारण की है, वह जैसे सूर्य्य मेघ को, वैसे शत्रुओं को जीत सकता है॥७॥

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