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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 28
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - पञ्चमः
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    उ॒भा पि॑बतमश्विनो॒भा नः॒ शर्म॑ यच्छतम्।अ॒वि॒द्रि॒याभि॑रू॒तिभिः॑॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भा। पि॒ब॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒। उ॒भा। नः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒त॒म् ॥ अ॒वि॒द्रि॒याभिः॑। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् । अविद्रियाभिरूतिभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उभा। पिबतम्। अश्विना। उभा। नः। शर्म। यच्छतम्॥ अविद्रियाभिः। ऊतिभिरित्यूतिऽभिः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 28
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    पदार्थ -
    हे (अश्विना) सूर्य चन्द्रमा के तुल्य अध्यापक उपदेशको! (उभा) दोनों तुम लोग जिस जगह पर उत्तम रस को (पिबतम्) पिओ उस (शर्म) उत्तम आश्रय स्थान वा सुख को (उभा) दोनों तुम (अविद्रियाभिः) छिद्ररहित (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से रक्षित घर को (नः) हमारे लिये (यच्छतम्) देओ॥२८॥

    भावार्थ - अध्यापक और उपदेशक लोगों को चाहिये कि सदा उत्तम घर बनाने के और निवास के उपदेशों को कर जहां पूर्ण रक्षा हो, उस विषय में सबको प्रेरणा करें॥२८॥

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