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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त

    अघाय॒तामपि॑ नह्या॒ मुखा॑नि स॒पत्ने॑षु॒ वज्र॑मर्पयै॒तम्। इन्द्रे॑ण द॒त्ता प्र॑थ॒मा श॒तौद॑ना भ्रातृव्य॒घ्नी यज॑मानस्य गा॒तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒घ॒ऽय॒ताम् । अपि॑ । न॒ह्य॒ । मुखा॑नि । स॒ऽपत्ने॑षु । वज्र॑म् । अ॒र्प॒य॒ । ए॒तम् । इन्द्रे॑ण । द॒त्ता । प्र॒थ॒मा । श॒तऽओ॑दना । भ्रा॒तृ॒व्य॒ऽघ्नी । यज॑मानस्य । गा॒तु: ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अघायतामपि नह्या मुखानि सपत्नेषु वज्रमर्पयैतम्। इन्द्रेण दत्ता प्रथमा शतौदना भ्रातृव्यघ्नी यजमानस्य गातुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अघऽयताम् । अपि । नह्य । मुखानि । सऽपत्नेषु । वज्रम् । अर्पय । एतम् । इन्द्रेण । दत्ता । प्रथमा । शतऽओदना । भ्रातृव्यऽघ्नी । यजमानस्य । गातु: ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे वेदवाणी !] (अघायताम्) बुरा चीतनेवालों के (मुखानि) मुखों को (अपि नह्य) बाँध दे, (सपत्नेषु) वैरियों पर (एतम् वज्रम्) इस वज्र को (अर्पय) छोड़। [तू] (इन्द्रेण) परमेश्वर करके (दत्ता) दी हुई, (प्रथमा) पहिली (शतौदना) सैकड़ों प्रकार सींचनेवाली [वेदवाणी] (भ्रातृव्यघ्नी) शत्रु को नाश करनेवाली (यजमानस्य) यजमान [श्रेष्ठकर्म करनेवाले] का (गातुः) मार्ग [है] ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि जिस सर्वहितकारिणी वेदवाणी को परमेश्वर ने सृष्टि की आदि में दिया है, उस के द्वारा सुशिक्षित होकर अपने व्यवहारों को सुधारें ॥१॥

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