अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रजापति
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
म्रो॒को म॑नो॒हाख॒नो नि॑र्दा॒ह आ॑त्म॒दूषि॑स्तनू॒दूषिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम्रो॒क: । म॒न॒:ऽहा । ख॒न: । नि॒:ऽदा॒ह: । आ॒त्म॒ऽदूषि॑: । त॒नू॒ऽदूषि॑: ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
म्रोको मनोहाखनो निर्दाह आत्मदूषिस्तनूदूषिः ॥
स्वर रहित पद पाठम्रोक: । मन:ऽहा । खन: । नि:ऽदाह: । आत्मऽदूषि: । तनूऽदूषि: ॥१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
विषय - दुःख से छूटने का उपदेश।
पदार्थ -
(म्रोकः) सतानेवाला, (मनोहा) मन का नाश करनेवाला, (खनः) खोद डालनेवाला, (निर्दाहः) जलन करनेवाला, (आत्मदूषिः) आत्मा को दूषित करनेवाला, और (तनूदूषिः) शरीर को दूषित करनेवाला [जोरोग है] ॥३॥
भावार्थ - मनुष्यों को योग्य हैकि जिन रोगों वा दोषों से आत्मा और शरीर में विकार होवे, उनको ज्ञानपूर्वकहटावें और कभी न बढ़ने दें ॥२-४॥
टिप्पणी -
३−(म्रोकः) म्रुचु गतौवेदे तु हिंसने-घञ्, कुत्वम्। हिंसकः (मनोहा) मनोनाशकः (खनः) खनु विदारणे-अच्।विदारकः। पीडकः (निर्दाहः) निरन्तरदाहकः (आत्मदूषिः) आत्मदूषको रोगः (तनूदूषिः)शरीरदूषकः ॥