अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 21
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
ब्रह्म॑ज्येष्ठा॒ सम्भृ॑ता वी॒र्याणि॒ ब्रह्माग्रे॒ ज्येष्ठं॒ दिव॒मा त॑तान। भू॒तानां॑ ब्र॒ह्मा प्र॑थ॒मोत ज॑ज्ञे॒ तेना॑र्हति॒ ब्रह्म॑णा॒ स्पर्धि॑तुं॒ कः ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ऽज्येष्ठा। सम्ऽभृ॑ता। वी॒र्या᳡णि। ब्रह्म॑। अग्रे॑। ज्येष्ठ॑म्। दिव॑म्। आ। त॒ता॒न। भू॒ताना॑म्। ब्र॒ह्मा। प्र॒थ॒मः। उ॒त। ज॒ज्ञे॒। तेन॑। अ॒र्ह॒ति॒। ब्रह्म॑णा। स्पर्धि॑तुम्। कः ॥२२.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मज्येष्ठा सम्भृता वीर्याणि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमा ततान। भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽज्येष्ठा। सम्ऽभृता। वीर्याणि। ब्रह्म। अग्रे। ज्येष्ठम्। दिवम्। आ। ततान। भूतानाम्। ब्रह्मा। प्रथमः। उत। जज्ञे। तेन। अर्हति। ब्रह्मणा। स्पर्धितुम्। कः ॥२२.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 21
विषय - महाशान्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ -
(संभृता) यथावत् भरे हुए (वीर्याणि) वीर कर्म (ब्रह्मज्येष्ठा) ब्रह्म [परमात्मा] को ज्येष्ठ [महाप्रधान रखने-वाले] हैं, (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ [सर्वप्रधान] (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] ने (अग्रे) पहिले (दिवम्) ज्ञान को (आ) सब ओर (ततान) फैलाया है। (उत) और (ब्रह्मा) वह ब्रह्मा [सबसे बड़ा, सर्वजनक परमात्मा] (भूतानाम्) प्राणियों में (प्रथमः) पहिला (जज्ञे) प्रकट हुआ है, (तेन) इसलिये (ब्रह्मणा) ब्रह्मा [महान्-परमात्मा] के साथ (कः) कौन (स्पर्धितुम्) झगड़ने को (अर्हति) समर्थ है? ॥२१॥
भावार्थ - संसार में सब प्रकार के पराक्रम और बल सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के सामर्थ्य से हैं, उस महावृद्ध, सर्वजनक से तुल्य वा अधिक कोई भी नहीं है। सब मनुष्य उसकी उपासना करके सुख प्राप्त करें ॥२१॥
टिप्पणी -
मन्त्र २०, २१ आगे हैं-अथर्व० १९।२३।२९,३० ॥२१−(ब्रह्मज्येष्ठा) ब्रह्म परमात्मा ज्येष्ठो महाप्रधानो येषां तानि (संभृता) सम्यक् पोषितानि (वीर्याणि) वीरकर्माणि (ब्रह्म) प्रवृद्धः परमात्मा (अग्रे) सृष्टिपूर्वम् (ज्येष्ठम्) सर्वप्रधानम् (दिवम्) दिवु गतौ-क। ज्ञानम् (आ) समन्तात् (ततान) विस्तारितवान् (भूतानाम्) प्राणिनां मध्ये (ब्रह्मा) सर्वेभ्यः प्रवृद्धः परमात्मा (प्रथमः) आद्यः (उत) अपि (प्रथमोत) रोर्यत्वे तस्य लोपे पुनः सन्धिश्छान्दसः संहितायाम् (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (तेन) कारणेन (अर्हति) समर्थो भवति (ब्रह्मणा) परमात्मना सह (स्पर्धितुम्) स्पर्धामभिभवेच्छां कर्त्तुम् (कः) कः पुरुषः। न कोऽपीत्यर्थः ॥