अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 18
अश्व॑स्य॒ वारो॑ गोशपद्य॒के ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑स्य॒ । वार॑: । गोशपद्य॒के ॥१२९.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वस्य वारो गोशपद्यके ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वस्य । वार: । गोशपद्यके ॥१२९.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 18
विषय - मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
(अश्वस्य वारः) अश्ववार [घुड़चढ़ा, घोड़ा लेने को] (गोशपद्यके) गौओं के सोने के स्थान में [व्यर्थ है] ॥१८॥
भावार्थ - सेवा करनेवाली अर्थात् उचित काम में लगी हुई बुद्धि तीव्र होती है, घुड़चढ़े को उत्तम घोड़ा घुड़साल में मिलता है, गोशाला में नहीं ॥१७, १८॥
टिप्पणी -
१८−(अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वारः) वारयिता। आरूढः (गोशपद्यके) गो+शीङ् शयने-ड+पद-यत्, स्वार्थे कन्। गोशयनस्थाने। गोष्ठे ॥