अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 8
परि॑ त्रयः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । त्रय: ॥१२९.८।
स्वर रहित मन्त्र
परि त्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । त्रय: ॥१२९.८।
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 8
विषय - मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
[वहाँ] (त्रयः) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक क्लेश रूप] (पृदाकवः) अजगर [बड़े साँप] (शृङ्गम्) (धमन्तः) सींग फूँकते हुए [बाजे के समान फुफकार मारते हुए] (परि) अलग (आसते) बैठते हैं ॥८-१०॥
भावार्थ - जिस कुल में माता, पिता और आचार्य सुशिक्षक है, वहाँ सन्तान सदा सुखी रहते हैं, और जैसे अजगर साँप अपने श्वास से खैंचकर प्राणियों को खा जाते हैं, वैसे ही विद्वान् सन्तानों को तीनों क्लेश नहीं सताते हैं ॥७-१०॥
टिप्पणी -
८−(परि) पृथग्भावे (त्रयः) आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकक्लेशाः ॥