अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 7
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
यत्रा॒मूस्तिस्रः॑ शिंश॒पाः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । अ॒मू: । तिस्र॑: । शिंश॒पा: ॥१२९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रामूस्तिस्रः शिंशपाः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । अमू: । तिस्र: । शिंशपा: ॥१२९.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 7
विषय - मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ -
(यत्र) जहाँ (अमूः) वे (तिस्रः) तीन [माता, पिता और आचार्य रूप प्रजाएँ] (शिंशपाः) बालक को पालनेवाली हैं ॥७॥
भावार्थ - जिस कुल में माता, पिता और आचार्य सुशिक्षक है, वहाँ सन्तान सदा सुखी रहते हैं, और जैसे अजगर साँप अपने श्वास से खैंचकर प्राणियों को खा जाते हैं, वैसे ही विद्वान् सन्तानों को तीनों क्लेश नहीं सताते हैं ॥७-१०॥
टिप्पणी -
७−(यत्र) यस्मिन् कुले (अमूः) प्रसिद्धाः (तिस्रः) मातापित्राचार्यरूपाः प्रजाः (शिंशपाः) छान्दसं रूपम्। शिशुपाः। बालानां पालिकाः ॥