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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - आर्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    तां स्व॒धां पि॒तर॒ उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । स्व॒धाम् । पि॒तर॑: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । उ॒प॒ऽजी॒व॒नीय॑: । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां स्वधां पितर उप जीवन्त्युपजीवनीयो भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । स्वधाम् । पितर: । उप । जीवन्ति । उपऽजीवनीय: । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 4; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (पितरः) पालनेवाले [सूर्य आदि लोक] (ताम्) उस (स्वधाम्) आत्मधारण शक्ति [विराट्] का (उप जीवन्ति) आश्रय लेकर जीते, हैं (उपजीवनीयः) वह [दूसरों का] आश्रय (भवति) होता है, (यः एवम् वेद) जो ऐसा जानता है ॥८॥

    भावार्थ - ब्रह्मज्ञानी पुरुष सूर्य आदि लोकों में ईश्वरशक्ति देखकर उस के आश्रित रह कर सबकी उन्नति करते हैं ॥८॥

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