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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 32
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्णे॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपूर्व॑म्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भो॑जनानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पयाम॒ऽगृ॑हीतः॒। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑ ॥३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविदङ्ग यवमन्तो वयञ्चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय । इहेहैषाङ्कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषोऽनमउक्तिँ यजन्ति उपयामगृहीतो स्यश्विभ्यान्त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित्। अङ्ग। यवमन्त इति यवऽमन्तः। यवम्। चित्। यथा। दान्ति। अनुपूर्वमित्यनुऽपूर््वम्। वियूयेति विऽयूय। इहेहेतीहऽइह। एषाम्। कृणुहि। भोजनानि। ये। बर्हिषः। नमउक्तिमिति नमःऽउक्तिम्। यजन्ति। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। त्वा। सरस्वत्यै। त्वा। इन्द्राय। त्वा। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে (অঙ্গ) জ্ঞানবান্ রাজন্ ! (কুবিৎ) বহু ঐশ্বর্য্য যুক্ত আপনি (অশ্বিভ্যাম্) বিদ্যাপ্রাপ্ত শিক্ষকগণের জন্য (উপয়ামগৃহীতঃ) ব্রহ্মচর্য্যের নিয়ম স্বীকার করিয়াছেন (অসি), সেই (সরস্বত্যৈ) বিদ্যাযুক্ত বাণী হেতু (ত্বা) আপনাকে এবং (সুত্রাম্ণে) সুরক্ষার জন্য (ত্বা) আপনাকে আমরা স্বীকার করি । তাহাদের জন্য সৎকার সহ ভোজনাদি প্রদান করুন । যেমন, (য়বমন্তঃ) বহু যবাদি ধান্য যুক্ত কৃষি করিবার লোকেরা (ইহেহ) এই ব্যবহারে (য়বম্) যবাদি অন্নকে (অনুপূর্বম্) ক্রমপূর্বক (দন্তি) কর্ত্তন করে । ভূষি হইতে (চিৎ)(য়বম্) যবকে (বিয়ূয়) পৃথক করিয়া রক্ষা করে সেইরূপ সত্য অসত্যকে ঠিক বিচার করিয়া ইহাদের রক্ষা করুন ॥ ৩২ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন কৃষকগণ পরিশ্রম সহ পৃথিবী হইতে অনেক ফল উৎপন্ন এবং রক্ষা করিয়া ভোগ করে এবং সারহীন পদার্থ নিক্ষেপ করে এবং যেমন সঠিক অংশ রাজাকে প্রদান করে সেইরূপ রাজাদি পুরুষদিগের উচিত যে, অত্যন্ত পরিশ্রম সহ ইহার রক্ষা ন্যায়াচরণপূর্বক ঐশ্বর্য্য উৎপাদন করুন এবং সুপাত্রকে প্রদান করিয়া আনন্দপূর্বক ভোগ করুন ॥ ৩২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - কু॒বিদ॒ঙ্গ য়ব॑মন্তো॒ য়বং॑ চি॒দ্যথা॒ দান্ত্য॑নুপূ॒র্বং বি॒য়ূয়॑ । ই॒হেহৈ॑ষাং কৃণুহি॒ ভোজ॑নানি॒ য়ে ব॒র্হিষো॒ নম॑উক্তিং॒ য়জ॑ন্তি । উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽস্য॒শ্বিভ্যাং॑ ত্বা॒ সর॑স্বত্যৈ॒ ত্বেন্দ্রা॑য় ত্বা সু॒ত্রামণে॑ ॥ ৩২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - কুবিদঙ্গেত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । ক্ষত্রপতির্দেবতা । নিচৃদ্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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