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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    दे॒व॒श्रुतौ॑ दे॒वेष्वाघो॑षतं॒ प्राची॒ प्रेत॑मध्व॒रं क॒ल्पय॑न्तीऽऊ॒र्ध्वं य॒ज्ञं न॑यतं॒ मा जि॑ह्वरतम्। स्वं गो॒ष्ठमाव॑दतं देवी दुर्ये॒ऽआयु॒र्मा निर्वा॒दिष्टं प्र॒जां मा निर्वा॑दिष्ट॒मत्र॑ रमेथां॒ वर्ष्म॑न् पृथि॒व्याः॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व॒श्रुता॒विति॑ देव॒ऽश्रुतौ॑। दे॒वेषु॑। आ। घो॒ष॒त॒म्। प्राची॒ऽइति॒ प्राची॑। प्र। इ॒त॒म्। अ॒ध्व॒रम्। क॒ल्पय॑न्तीऽइति॑ क॒ल्पय॑न्ती। ऊ॒र्ध्वम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒म्। मा। जि॒ह्व॒र॒त॒म्। स्वम्। गो॒ष्ठम्। गो॒स्थमिति॑ गो॒ऽस्थम्। आ। व॒द॒त॒म्। दे॒वी॒ऽइति॑ देवी। दु॒र्ये॒ऽइति॑ दुर्ये। आयुः॑। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मा। निः। वा॒दि॒ष्ट॒म्। अत्र॑। र॒मे॒था॒म्। वर्ष्म॑न्। पृ॒थि॒व्याः ॥१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवश्रुतौ देवेष्वा घोषतम्प्राची प्रेतमध्वरङ्कल्पयन्तीऽऊर्ध्वं यज्ञन्नयतम्मा जिह्वरतम् । स्वङ्गोष्ठमा वदतन्देवी दुर्येऽआयुर्मा निर्वादिष्टम्प्रजाम्मा निर्वादिष्टमत्र रमेथाँ वर्ष्मन्पृथिव्याः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवश्रुताविति देवऽश्रुतौ। देवेषु। आ। घोषतम्। प्राचीऽइति प्राची। प्र। इतम्। अध्वरम्। कल्पयन्तीऽइति कल्पयन्ती। ऊर्ध्वम्। यज्ञम्। नयतम्। मा। जिह्वरतम्। स्वम्। गोष्ठम्। गोस्थमिति गोऽस्थम्। आ। वदतम्। देवीऽइति देवी। दुर्येऽइति दुर्ये। आयुः। मा। निः। वादिष्टम्। प्रजामिति प्रऽजाम्। मा। निः। वादिष्टम्। अत्र। रमेथाम्। वर्ष्मन्। पृथिव्याः॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যাহা (দেবেষু) বিদ্বান্ বা দিব্যগুণে (দেবশ্রুতৌ) বিদ্বান্দিগের নিকট শ্রবণকৃত প্রাণ, অপান বায়ু (ঘোষতম্) ব্যক্ত শব্দ করে এবং যাহা (প্রাচী) প্রাপ্ত করিবার বা (কল্পয়ন্তী) সামর্থ্যযুক্ত প্রকাশ ভূমি (ঊর্ধ্বম্) উত্তম গুণযুক্ত (য়জ্ঞম্) বিজ্ঞান্ বা শিল্পময় যজ্ঞকে (প্রেতম্) জানাইতে থাকে (নয়তম্) প্রাপ্ত করে (মা জিহ্বরতম্) কুটিল গতিযুক্ত না হয়, যাহা (দেবী) দিব্যগুণসম্পন্ন (দুর্য়ে) গৃহরূপ (স্বয়ং) স্বীয় (গোষ্ঠম্) কিরণ ও অবয়বের স্থানের (আবদতম্) উপদেশ নিমিত্তক হয়, (আয়ুঃ) আয়ুকে (মা নির্বাদিষ্টম্) নষ্ট না করে, (প্রজাম্) উৎপন্ন সৃষ্টিকে (মা নির্বাদিষ্টম্) নষ্ট না করে এবং তাহারা (পৃথিব্যাঃ) আকাশের মধ্যে (অত্র) এই (বর্ষ্মন্) সুখপূর্বক সেবনযুক্ত জগতে (রমেথাম্) রমণ করে তথা করিতে থাক ॥ ১৭ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের যতখানি জগৎ অন্তরিক্ষে আছে ততখানি দ্বারা বহু উত্তম সুখের সম্পাদন করা উচিত ॥ ১৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - দে॒ব॒শ্রুতৌ॑ দে॒বেষ্বা ঘো॑ষতং॒ প্রাচী॒ প্রেত॑মধ্ব॒রং ক॒ল্পয়॑ন্তীऽঊ॒র্ধ্বং য়॒জ্ঞং ন॑য়তং॒ মা জি॑হ্বরতম্ । স্বং গো॒ষ্ঠমা ব॑দতং দেবী দুর্য়ে॒ऽআয়ু॒র্মা নির্বা॒দিষ্টং প্র॒জাং মা নির্বা॑দিষ্ট॒মত্র॑ রমেথাং॒ বর্ষ্ম॑ন্ পৃথি॒ব্যাঃ ॥ ১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - দেবশ্রুতাবিত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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