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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 56
    ऋषिः - सुतजेतृमधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रं॒ विश्वा॑ऽअवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑। र॒थीत॑मꣳ र॒थीनां॒ वाजा॑ना॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म्॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म्। विश्वाः॑। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। स॒मु॒द्रव्य॑चस॒मिति॑ समु॒द्रऽव्य॑चसम्। गिरः॑। र॒थीत॑मम्। र॒थित॑म॒मिति॑ र॒थिऽत॑मम्। र॒थीना॑म्। र॒थिना॒मिति॑ र॒थिना॑म्। वाजा॑नाम्। सत्प॑ति॒मिति॒ सत्ऽपति॑म्। पति॑म् ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रँविश्वाऽअवीवृधन्त्समुद्रव्यचसङ्गिरः । रथीतमँ रथीनाँ वाजानाँ सत्पतिं पतिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। विश्वाः। अवीवृधन्। समुद्रव्यचसमिति समुद्रऽव्यचसम्। गिरः। रथीतमम्। रथितममिति रथिऽतमम्। रथीनाम्। रथिनामिति रथिनाम्। वाजानाम्। सत्पतिमिति सत्ऽपतिम्। पतिम्॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 56
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र की मूल भावना यह है कि एक आदर्श गृहिणी ने अपना मन ‘पाचन, गोपालन व पठन’ में लगाना है। इस प्रकार उत्तम इच्छाओं के बनाये रखने के लिए मन का विजय अत्यन्त आवश्यक है। मनो-विजय के बिना यह सम्भव नहीं। मन का जीतनेवाला ही ‘जेता’ है। यह सदा ( माधुच्छन्दस् ) = अत्यन्त उत्तम इच्छाओंवाला होता है। २. ऐसा बना रहने के लिए यह प्रभु-स्तवन करता है और कहता है कि ( विश्वः गिरः ) = वेद की सब वाणियाँ ( इन्द्रम् ) = परमात्मा को ( अवीवृधन् ) = बढ़ाती हैं—उस प्रभु की स्तुति करती हैं जो प्रभु ३. ( समुद्रव्यचसम् ) = सदा आनन्दमय है [ स+मुद् ] तथा अधिक-से-अधिक ( सम् ) = विस्तारवाले हैं। वस्तुतः ‘यो वै भूभा तत्सुखम्’ = विस्तार ही आनन्द है। ४. ( रथीनाम् ) = रथवालों में ( रथीतमम् ) = सर्वोत्तम रथवाले हैं। इस प्रभु के रथ में बैठकर ही हम भी अपनी जीवन-यात्रा को सहज में पूरा कर सकते हैं। ५. ( वाजानां पतिम् ) = वे प्रभु सब वाजों = शक्तियों व ज्ञानों के ( पतिम् ) = पति हैं। वे प्रभु सर्वशक्तिमान् व सर्वज्ञ हैं। हमारा भला करने में वे पूर्ण समर्थ हैं ६. ( सत्पतिम् ) = वे प्रभु सदा सज्जनों के रक्षक हैं। हम सत् बनें प्रभु हमारे रक्षक होंगे। ‘सत्’ बनने का संकेत यह है कि [ क ] ( इन्द्रः ) = जितेन्द्रिय बनो। [ ख ] ( समुद्रव्यचसम् ) = सदा आनन्द में रहो तथा दिल को छोटा न करो। [ ग ] ( रथीतमम् ) = इस शरीर को प्रभु का दिया हुआ रथ समझें और इसे ठीक रखते हुए इसके द्वारा पार पहुँचने पर पीड़ित लोगों का दुःख दूर करने में प्रवृत्त हों।

    भावार्थ -

    भावार्थ — इस वासनामय जगत् में प्रभु का नाम-स्मरण ही हमें जेता बनाता है। उस प्रभु को ही हम अपना रथ जानें। वे प्रभु ही सत्पति हैं, वाजपति हैं। प्रभु-सम्पर्क से ही हमें शक्ति प्राप्त होती है।

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