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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 42
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    बोधा॑ मेऽअ॒स्य वच॑सो यविष्ठ॒ मꣳहि॑ष्ठस्य॒ प्रभृ॑तस्य स्वधावः। पीय॑ति त्वो॒ऽअनु॑ त्वो गृणाति व॒न्दारु॑ष्टे त॒न्वं वन्देऽअग्ने॥४२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बोध॑। मे॒। अ॒स्य। वच॑सः। य॒वि॒ष्ठ॒। मꣳहि॑ष्ठस्य। प्रभृ॑त॒स्येति॒ प्रऽभृ॑तस्य। स्व॒धा॒व॒ इति॑ स्वधाऽवः। पीय॑ति। त्वः॒। अनु॑। त्वः॒। गृ॒णा॒ति॒। व॒न्दारुः॑। ते॒। त॒न्व᳖म्। व॒न्दे॒। अ॒ग्ने॒ ॥४२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बोधा मेऽअस्य वचसो यविष्ठ मँहिष्ठस्य प्रभृतस्य स्वधावः । पीयति त्वो अनु त्वो गृणाति वन्दारुष्टे तन्वँवन्दे अग्ने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बोध। मे। अस्य। वचसः। यविष्ठ। मꣳहिष्ठस्य। प्रभृतस्येति प्रऽभृतस्य। स्वधाव इति स्वधाऽवः। पीयति। त्वः। अनु। त्वः। गृणाति। वन्दारुः। ते। तन्वम्। वन्दे। अग्ने॥४२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 42
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    पदार्थ -

    १. मन्त्र ४० तथा ४१ के अनुसार एक व्यक्ति अपने को आदर्श प्रचारक बनाकर प्रजाओं में ज्ञान का प्रसार करता है और तम = अज्ञान का [ दृ विदारणे ] विदारण करने के कारण यह ‘दीर्घतमाः’ नामवाला हो जाता है। यह प्रभु से कहता है कि हे ( यविष्ठ ) = बुराइयों को सर्वाधिक दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! हे ( स्वधावः ) = [ स्व+धा+वन् ] आत्मधारण की शक्ति देनेवाले प्रभो! ( मंहिष्ठस्य ) = [ दातृतम ] अधिक-से- अधिक धनों के देनेवाले, अर्थात् आपसे प्राप्त कराये गये धनों को लोकहित में विनियुक्त करनेवाले और इस प्रकार ( प्रभृतस्य ) = प्रजाओं का प्रकृष्ट भरण करनेवाले मेरे ( अस्य वचसो बोध ) = इस वचन को आप अवश्य जानिए कि २. इस कार्य में लगे हुए मेरी ( त्वः ) = कोई एक तो ( पीयति ) = हिंसा करता है और ( अनु ) = पीछे सामान्यतः मृत्यु के बाद ( त्वः ) = कोई ( गृणाति ) = प्रशंसा भी करता है। आपके निर्देशानुसार मैं प्रजाओं में ही अपना स्थान बनाकर ज्ञान-प्रचार में लग गया हूँ, परन्तु मैं जिनके हित में लगा हूँ वे ही मुझे गालियाँ देते हैं—मेरी हिंसा पर उतारू हैं। कोई प्रशंसा भी करता है, परन्तु वैरियों की संख्या अधिक है—मेरी हिंसा करनेवाले बहुत हैं। ३. अतः मैं तो ( अग्ने ) = हे मार्गदर्शक प्रभो! ( ते ) = तेरा ( वन्दारुः ) = अभिवादन व स्तुति करनेवाला बनता हूँ और ( तन्वम् ) = इस प्रजारूप तेरे शरीर को ( वन्दे ) = नमस्कार करता हूँ। इस प्रजा के अन्दर भी मैं आपका ही रूप देखने का प्रयत्न करता हूँ, अतः उनसे की गई हिंसा से घबराता नहीं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हे प्रभो! मुझे शक्ति दीजिए कि मैं प्रजाओं के लिए अपने सर्वस्व को दे सकूँ, उनका प्रकृष्ट भरण करनेवाला बनूँ। वे हिंसा भी करें तो भी मैं उनमें आपका ही रूप देखने का प्रयत्न करूँ।

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